कोर्ट में फाइल किया गया केस कैसे वापस लें? जानिए पूरी कानूनी प्रक्रिया आसान भाषा में

How to withdraw a case filed in court Know the entire legal process in simple language

कभी-कभी ऐसा होता है कि किसी भावनात्मक, पारिवारिक या सामाजिक दबाव में आकर केस दर्ज कर दिया जाता है। लेकिन बाद में जब सच्चाई सामने आती है, या दोनों पक्षों में सुलह हो जाती है, तो केस को जारी रखना व्यर्थ लगता है।

  • कई बार पति-पत्नी के झगड़ों में समझौता हो जाता है
  • पारिवारिक विवाद खत्म हो जाता है
  • दोस्ती या व्यापारिक रिश्तों में फिर से विश्वास बन जाता है
  • कुछ मामलों में झूठी एफआईआर या गलतफहमी में केस दर्ज हो जाता है

ऐसे हालात में लोग केस वापस लेना चाहते हैं – लेकिन कैसे? यही हम आगे विस्तार से समझेंगे।

कौन-कौन से केस वापस लिए जा सकते हैं?

कम्पाउंडेबले ऑफेंसिस (समझौता योग्य अपराध)

यह वे अपराध होते हैं जिनमें कानून खुद कहता है कि पक्षकार आपस में समझौता कर सकते हैं। उदाहरण के लिए कुछ भारतीय न्याय संहिता (BNS) के तहत अपराध:

अपराध का नामBNS की धारा
मारपीट (हल्कीचोट)115(2)
आपसी झगड़ा 131
मानहनि356
धोखा (छोटी रकमपर)318 

इन मामलों में मजिस्ट्रेट की अनुमति से केस वापस लिया जा सकता है।

क्या आप को कानूनी सलाह की जरूरत है ?

नॉन कम्पाउंडेबले ऑफेंसिस  (गैर-समझौता योग्य अपराध)

यह वे अपराध हैं जो समाज के विरुद्ध माने जाते हैं और जिनमें समझौता नहीं हो सकता, जैसे कुछ भारतीय न्याय संहिता (BNS) के तहत अपराध:

अपराध का नामBNS की धारा
हत्या103
रेप 64
अपहरण137
दहेजहत्या 80

हालांकि अगर समझौता हो भी जाए, तो इन मामलों में केस रद्द करवाने के लिए हाईकोर्ट की अनुमति जरूरी होती है।

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एफआईआर (FIR) को कैसे वापस लें?

एफआईआर दर्ज हो जाने के बाद, पुलिस थाने से उसे वापस नहीं लिया जा सकता। इसके लिए कोर्ट का सहारा लेना पड़ता है।

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 528 के तहत हाईकोर्ट में रिट पिटीशन दायर करनी होती है।

  • अगर समझौता हो गया है, तो उसका प्रूफ जैसे सुलहनामा, एफिडेविट लगाना होता है
  • दोनों पक्षों की उपस्थिति जरूरी होती है
  • हाईकोर्ट तय करता है कि केस को रद्द किया जाए या नहीं

मजिस्ट्रेट या ट्रायल कोर्ट में केस वापस लेने की प्रक्रिया

यदि केस कम्पाउंडेबले ऑफेंसिस का है, तो इसे ट्रायल कोर्ट या मजिस्ट्रेट के सामने वापस लिया जा सकता है।

प्रक्रिया:

  • एक आवेदन दिया जाता है जिसमें लिखा होता है कि पक्षों में समझौता हो चुका है
  • दोनों पक्ष कोर्ट में उपस्थित होते हैं
  • मजिस्ट्रेट दोनों का बयान दर्ज करता है
  • अगर कोर्ट संतुष्ट है, तो केस खत्म कर दिया जाता है

हाईकोर्ट में केस रद्द कराने की प्रक्रिया

इस धारा के तहत हाईकोर्ट अपने विवेक से केस को रद्द कर सकता है यदि वह न्याय के हित में हो।

प्रक्रिया:

  • हाईकोर्ट में वकील के माध्यम से रिट पिटीशन दायर करें
  • समझौता पत्र और अन्य जरूरी दस्तावेज़ लगाएं
  • दोनों पक्ष कोर्ट में उपस्थित हों
  • कोर्ट का निर्णय अंतिम होता है

कौन-कौन से केस हाईकोर्ट ही रद्द कर सकता है?

कुछ केस ऐसे होते हैं जिन्हें सिर्फ हाईकोर्ट ही रद्द कर सकता है, जैसे:

  • BNS की धारा  85 (क्रूरता)
  • BNS की धारा  316 (आपराधिक विश्वासघात)
  • BNS की धारा  109 (हत्या की कोशिश)

इन मामलों में पक्षों के बीच समझौता होने पर भी ट्रायल कोर्ट केस खत्म नहीं कर सकता। इसके लिए हाईकोर्ट में जाना ज़रूरी है।

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केस वापस लेने के लिए जरूरी दस्तावेज़ और सबूत

  • समझौता पत्र (सुलहनामा) – दोनों पक्षों के हस्ताक्षर वाला
  • एफिडेविट – समझौते की पुष्टि के लिए
  • FIR की कॉपी
  • Aadhar/ID Proof
  • कोर्ट में उपस्थित रहना अनिवार्य

कोर्ट केस वापसी में क्या-क्या अड़चनें आ सकती हैं?

  • यदि पीड़ित मुकर जाए तो केस खत्म नहीं होगा
  • सरकारी वकील (प्रॉसीक्यूटर) आपत्ति दर्ज कर सकता है
  • कोर्ट को लगे कि समझौता दबाव में हुआ है
  • पुलिस केस को कमजोर करने का आरोप लगाए

इसलिए हर कदम सावधानी से उठाना चाहिए।

केस वापसी के बाद क्या असर होता है?

  • आरोपी को राहत मिलती है
  • पुलिस रिकॉर्ड से केस हटता है
  • पासपोर्ट, वीजा, नौकरी के लिए क्लीन चिट मिलती है
  • एक बार मामला खत्म हो गया तो वही केस फिर से नहीं चलाया जा सकता

निष्कर्ष

यह समझना बेहद जरूरी है कि ऐसे संवेदनशील मामलों में भावनाओं के बजाय कानून और सही सलाह के आधार पर निर्णय लें। वकील की सलाह से ही कोई भी कदम उठाएं, चाहे वह केस दर्ज करना हो या समझौता करना। 

अगर कोई समझौता हो भी, तो उसे ज़रूर लिखित रूप में तैयार कराएं ताकि भविष्य में कोई विवाद न हो।

कोर्ट की हर प्रक्रिया को गंभीरता से लें—समय पर हाज़िर हों, दस्तावेज़ पूरे रखें, और किसी भी कानूनी सलाह को नजरअंदाज न करें। 

अगर आपको बयान देना है, तो वह पूरी तरह सोच-समझकर दें, किसी भी दबाव या डर के चलते कुछ भी न कहें जो बाद में आपके ही खिलाफ जाए।

सबसे ज़रूरी बात, बिना पूरी जानकारी या कानूनी मार्गदर्शन के केस वापस न लें। कई बार लोग भावनात्मक दबाव या सामाजिक डर में केस छोड़ देते हैं, जिससे उन्हें भविष्य में नुकसान हो सकता है। 

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अपने अधिकारों को जानें, आवाज़ उठाएं, और कानून की मदद लें।

किसी भी प्रकार की कानूनी सहायता के लिए लीड इंडिया से सम्पर्क कर सकते है। यहां आपको कानूनी समस्याओं से निपटने के लिए पूरी कानूनी सुविधा दी जाती है।

FAQs

1. क्या मैं थाने से ही FIR वापस ले सकता हूँ?

नहीं, FIR दर्ज हो जाने के बाद केवल कोर्ट की अनुमति से ही वापस ली जा सकती है।

2. क्या सभी केस वापस लिए जा सकते हैं?

नहीं, केवल कम्पाउंडेबले केस ट्रायल कोर्ट से और नॉन -कम्पाउंडेबले केस हाईकोर्ट से ही रद्द हो सकते हैं।

3. हाईकोर्ट में केस वापसी की प्रक्रिया कितने दिन में पूरी होती है?

लगभग 15 से 45 दिन, केस की प्रकृति और कोर्ट की व्यस्तता पर निर्भर करता है।

4. अगर पीड़ित कोर्ट में बयान बदल दे तो क्या केस खत्म हो जाता है?

सिर्फ कम्पाउंडेबले मामलों में ही, नॉन -कम्पाउंडेबले में नहीं।

5. क्या समझौता सिर्फ कागज़ पर करना काफी है?

नहीं, कोर्ट में दोनों पक्षों की मौखिक पुष्टि जरूरी है।

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