भारत का सुप्रीम कोर्ट केवल न्याय देने वाला मंच नहीं है, बल्कि यह संविधान का संरक्षक और लोकतांत्रिक मूल्यों का रक्षक भी है। इसके आदेश और निर्णय न केवल तत्कालीन मामलों को हल करते हैं, बल्कि कई बार सामाजिक और कानूनी बदलावों की नींव रखते हैं।
इस ब्लॉग में हम जानेंगे कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश पूरे देश में बाध्यकारी क्यों होते हैं, क्या उनके आधार पर नए कानून बन सकते हैं, और यह प्रक्रिया हमारे लोकतांत्रिक ढांचे को किस तरह प्रभावित करती है।
भारत में कानून कौन बनाता है?
भारत में लोकतंत्र के तीन मुख्य स्तंभ होते हैं:
- विधायिका (Legislature): कानून बनाने वाली संस्था (संसद और राज्य विधानसभा)।
- कार्यपालिका (Executive): कानूनों को लागू करने वाली संस्था (सरकार)।
- न्यायपालिका (Judiciary): कानूनों की व्याख्या करने और उनकी रक्षा करने वाली संस्था (अदालतें)।
सुनने में यह सीधा लगता है कि सिर्फ संसद या विधानसभा ही कानून बनाती है। लेकिन असल में यह प्रक्रिया थोड़ी जटिल और जुड़ी हुई होती है।
सुप्रीम कोर्ट भले ही सीधे कानून न बनाए, लेकिन उसके कई फैसले ऐसे होते हैं जिनसे सरकार को नए कानून बनाने की दिशा मिलती है या मजबूरी बन जाती है। अब सवाल उठता है: क्या सुप्रीम कोर्ट के आदेश से नया कानून बन सकता है? हाँ, लेकिन सीधे नहीं। आइए समझते हैं कि ये कैसे होता है।
सुप्रीम कोर्ट कानून बनाने को कैसे प्रभावित करता है?
1. संविधान की व्याख्या करके
सुप्रीम कोर्ट हमारे संविधान का रक्षक है। जब कोर्ट संविधान के किसी अनुच्छेद की व्याख्या करता है, तो वह व्याख्या देश का कानून बन जाती है।
अनुच्छेद 141 कहता है: “सुप्रीम कोर्ट द्वारा घोषित कानून पूरे भारत की सभी अदालतों पर लागू होगा।”
यानि भले ही सुप्रीम कोर्ट संसद की तरह कानून पास नहीं करता, लेकिन उसके फैसले ऐसे नियम बना देते हैं जिन्हें सभी को मानना होता है।
2. कानून में कमी बताकर
कई बार किसी जरूरी मुद्दे पर कोई साफ कानून नहीं होता। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट सरकार से कहता है कि:
- नया कानून बनाया जाए
- पुराने कानून में बदलाव किया जाए
- जब तक कानून न बने, तब तक कुछ अस्थायी दिशा-निर्देश लागू किए जाएं
ये बातें अक्सर तब होती हैं जब आम लोग या संगठन (NGO) पब्लिक इंट्रेस्ट लिटिगेशन (PIL) के जरिए कोर्ट से मदद मांगते हैं।
3. गाइडलाइंस जारी करके (जब तक कानून न बने)
अगर किसी मुद्दे पर कानून नहीं है और मामला बहुत जरूरी है, तो सुप्रीम कोर्ट खुद अस्थायी गाइडलाइंस जारी करता है। जब तक सरकार कानून नहीं बना देती, तब तक ये गाइडलाइंस कानून जैसे माने जाते हैं।
इस तरह सुप्रीम कोर्ट सीधे कानून नहीं बनाता, लेकिन उसके फैसले और निर्देश कानून बनाने की दिशा तय करते हैं।
सुप्रीम कोर्ट के फैसलों से बने या बदले गए कानून
विशाखा गाइडलाइंस
1997 में विशाखा बनाम राजस्थान राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने देखा कि महिलाओं को काम की जगह पर यौन उत्पीड़न से बचाने के लिए कोई कानून नहीं है। इस पर कोर्ट ने “विशाखा गाइडलाइंस” जारी कीं और कहा कि सभी ऑफिस में:
- शिकायत सुनने के लिए इंटरनल कंप्लेंट कमेटी बनाई जाए
- शिकायत पर कार्रवाई हो
- यौन उत्पीड़न रोका जाए
ये नियम 2013 तक लागू रहे। इसके बाद संसद ने इस मुद्दे पर एक कानून बनाया जिसका नाम है – सेक्सुअल हरस्मेंट ऑफ़ वूमेन वर्कप्लेस एक्ट। यानि पहले कोर्ट ने जरूरी गाइडलाइंस दीं, और फिर उन्हीं के आधार पर बाद में कानून बना।
पुलिस रिफॉर्म्स
2006 में प्रकाश सिंह बनाम भारत सरकार केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पुलिस व्यवस्था बहुत पुरानी हो गई है और इसमें बदलाव जरूरी है। कोर्ट ने राज्यों को 7 जरूरी सुझाव दिए, जैसे:
- राज्य सुरक्षा आयोग बनाया जाए
- DGP की नियुक्ति मेरिट से हो और उसका कार्यकाल कम से कम 2 साल हो
- एसपी और अन्य अधिकारियों का भी न्यूनतम 2 साल का कार्यकाल तय हो
- पुलिस स्थापना बोर्ड बनाया जाए जो ट्रांसफर और प्रमोशन के मामलों को देखे
- पुलिस शिकायत प्राधिकरण बने जहां जनता पुलिस के खिलाफ शिकायत कर सके
- कानून-व्यवस्था और आपराधिक जांच के लिए अलग-अलग टीम हो
- केंद्र स्तर पर नेशनल सिक्योरिटी कमीशन का गठन हो
कुछ राज्यों ने ये बदलाव किए, कुछ ने नहीं। लेकिन ये केस पुलिस सुधार की दिशा में एक बड़ा कदम बना।
ट्रांसजेंडर अधिकार
2014 में NALSA बनाम भारत सरकार केस में सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला दिया:
- ट्रांसजेंडर लोगों को “तीसरी लिंग” के रूप में मान्यता दी
- सरकार को कहा कि उन्हें बराबरी का हक दिया जाए
- उनके अधिकारों की सुरक्षा के लिए कानून बनाए जाएं
इसके बाद 2019 में संसद ने ट्रांसजेंडर पर्सन (प्रोटेक्शन ऑफ़ राइट्स) एक्ट पास किया। मतलब कोर्ट के कहने पर कानून बना।
लिव-इन रिलेशन और घरेलू हिंसा कानून
इंद्रा शर्मा बनाम वीकेवी शर्मा केस में सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया कि अगर कोई महिला लिव-इन रिलेशन में है (यानि शादी नहीं हुई है, पर साथ रह रही है), तब भी वो डोमेस्टिक वायलेंस एक्ट के तहत सुरक्षा पा सकती है।
यह नया कानून नहीं था, लेकिन पुराने कानून की व्याख्या को बढ़ाया गया, जिससे ज्यादा महिलाओं को सुरक्षा मिली।
क्या सुप्रीम कोर्ट संसद को जबरदस्ती कानून बनाने को कह सकता है?
सुप्रीम कोर्ट सरकार से ये कह सकता है कि किसी मुद्दे पर कानून बनाने पर विचार करे, या कोई सुधार सुझा सकता है। लेकिन वो संसद को मजबूर नहीं कर सकता कि वह कोई कानून जरूर बनाए।
ऐसा इसलिए है क्योंकि हमारे लोकतंत्र में हर संस्था (जैसे कोर्ट, संसद, सरकार) की अपनी-अपनी जिम्मेदारी होती है।
- कोर्ट कानून की व्याख्या करता है और दिशा दिखाता है
- लेकिन कानून सिर्फ संसद ही बना सकती है
लेकिन जब कोई मामला बहुत जरूरी या संवेदनशील हो, तब सुप्रीम कोर्ट के फैसले का नैतिक और कानूनी असर इतना होता है कि संसद और सरकार पर कानून बनाने का दबाव बन जाता है।
तो क्या इसका मतलब है कि सुप्रीम कोर्ट कानून बना रहा है? सीधे तौर पर नहीं।
सुप्रीम कोर्ट संसद की तरह कानून नहीं बना सकता। लेकिन वह कुछ अहम काम जरूर करता है, जैसे:
- जहाँ कानून की कमी हो, वहाँ अस्थायी नियम बना देता है (जैसे विशाखा गाइडलाइंस)
- पुराने कानूनों की नई तरह से व्याख्या करता है
- सरकार को कानून में बदलाव के सुझाव देता है
- अनुच्छेद 142 के तहत ऐसा आदेश देता है जिससे पूरा न्याय हो सके
इसे “ज्यूडिशियल एक्टिविज्म” कहा जाता है। कुछ लोग इसे अच्छा मानते हैं, तो कुछ इसकी आलोचना भी करते हैं।
ज्यूडिशियल एक्टिविज्म और ज्यूडिशियल ओवररीच में क्या फर्क है?
| ज्यूडिशियल एक्टिविज्म | ज्यूडिशियल ओवररीच |
| जब सरकार अपना काम नहीं करती, तब कोर्ट दखल देता है | जब कोर्ट सरकार के कामों में ज़रूरत से ज़्यादा दखल देता है |
| सरकार को ज़रूरी कदम उठाने के लिए प्रेरित करता है | ऐसा लगता है जैसे कोर्ट खुद कानून बना रहा है |
| संविधान के दायरे में रहता है | कभी-कभी अपने अधिकारों से बाहर चला जाता है |
उदाहरण:
- अगर कोर्ट कहे कि सरकार पर्यावरण की रक्षा करे = ज्यूडिशियल एक्टिविज्म
- लेकिन कोर्ट तय करे कि हर महीने कितनी गाड़ियाँ बिकें = ज्यूडिशियल ओवररीच
इसलिए ज़रूरी है कि कोर्ट न्याय तो करे, लेकिन चुनी हुई सरकार की जगह न ले।
कोर्ट के आदेश कानून कैसे बनते हैं?
कोर्ट किसी समस्या को पहचानता है: (जैसे – काम की जगह पर महिलाओं की सुरक्षा का कानून नहीं होना)
- कोर्ट गाइडलाइंस देता है या सरकार को कदम उठाने को कहता है
- संसद या राज्य विधानसभा उस मुद्दे पर एक बिल तैयार करती है (यानी प्रस्तावित कानून)
- उस बिल पर चर्चा होती है, सुधार किए जाते हैं, और फिर उसे पास किया जाता है
- राष्ट्रपति उस बिल को मंजूरी देते हैं
- कानून सरकारी नोटिफिकेशन के बाद लागू हो जाता है
कई बार ये पूरी प्रक्रिया सालों लग सकती है, और तब तक कोर्ट की गाइडलाइंस ही अस्थायी कानून की तरह मानी जाती हैं।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट भारत के कानून और न्याय व्यवस्था को दिशा देने में बहुत बड़ी भूमिका निभाता है। भले ही वह संसद की तरह सीधे कानून नहीं बना सकता, लेकिन अपने फैसलों और आदेशों के ज़रिए वह सरकार को नए कानून बनाने की प्रेरणा और दिशा देता है।
भारत में कई बड़े और ज़रूरी कानूनों की शुरुआत संसद में नहीं, बल्कि कोर्ट में हुई है। एक नागरिक, ग्राहक या लीगल प्रोफेशनल के रूप में यह समझना जरूरी है कि कोर्ट के फैसले हमारे अधिकारों, जिम्मेदारियों और कानूनों को कैसे प्रभावित करते हैं। जानकारी रखें, और अपने हक के लिए जागरूक रहें।
किसी भी कानूनी सहायता के लिए लीड इंडिया से संपर्क करें। हमारे पास लीगल एक्सपर्ट की पूरी टीम है, जो आपकी हर संभव सहायता करेगी।
FAQs
1. क्या सुप्रीम कोर्ट नए कानून बना सकता है?
नहीं, सुप्रीम कोर्ट खुद कानून नहीं बना सकता, लेकिन उसके आदेशों के आधार पर संसद कानून बना सकती है।
2. सुप्रीम कोर्ट के आदेशों को लागू करने के लिए संसद को क्या करना चाहिए?
संसद को सुप्रीम कोर्ट के आदेशों को ध्यान में रखते हुए कानून बनाने चाहिए या मौजूदा कानूनों में संशोधन करना चाहिए।
3. क्या सुप्रीम कोर्ट के आदेशों से संविधान में संशोधन किया जा सकता है?
संविधान में संशोधन का अधिकार केवल संसद को है, सुप्रीम कोर्ट नहीं कर सकता।
4. सुप्रीम कोर्ट के आदेशों को लागू करने के लिए कौन जिम्मेदार है?
केंद्र और राज्य सरकारें सुप्रीम कोर्ट के आदेशों को लागू करने के लिए जिम्मेदार होती हैं।
5. क्या सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के खिलाफ अपील की जा सकती है?
सुप्रीम कोर्ट के फैसले अंतिम होते हैं, लेकिन पुनर्विचार याचिका और करेटिव पिटीशन के जरिए संशोधन संभव है।



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