बेल एक बहुत महत्वपूर्ण हक है जो किसी भी आरोपी को दिया जाता है। इसका मकसद यह है कि जब तक केस का फैसला नहीं होता, तब तक आरोपी अपनी निजी आज़ादी के साथ बाहर रह सके। कानून का सिद्धांत है – “जब तक दोष साबित न हो, आरोपी निर्दोष माना जाएगा।” इसलिए, गिरफ्तारी और जेल में रखना अपवाद (exception) है, न कि सामान्य नियम।
लेकिन कई बार ट्रायल कोर्ट (निचली अदालत) या हाई कोर्ट बेल देने से मना कर देती हैं। इसके पीछे कारण हो सकते हैं –
- अपराध की गंभीरता
- जाँच की ज़रूरत
- या अन्य परिस्थितियाँ
- ऐसी स्थिति में सुप्रीम कोर्ट आख़िरी सहारा बनता है।
इस ब्लॉग में हम जानेंगे कि सुप्रीम कोर्ट से बेल कब और कैसे मिल सकती है, बेल पिटीशन दाखिल करने की पूरी प्रक्रिया क्या होती है, और सुप्रीम कोर्ट के कुछ महत्वपूर्ण फैसले।
बेल क्या है?
बेल का मतलब है – किसी आरोपी को केस खत्म होने तक या सुनवाई पूरी होने तक, कुछ शर्तों पर जेल से अस्थायी रूप से बाहर रहने की अनुमति देना। इसमें ज़मानती बॉन्ड, गारंटी या श्योरिटी देना पड़ सकता है।
बेल देने का उद्देश्य:
- अनुच्छेद 21 के तहत व्यक्ति की व्यक्तिगत आज़ादी की रक्षा करना।
- यह सुनिश्चित करना कि आरोपी ट्रायल के समय अदालत में मौजूद रहे, लेकिन बेवजह जेल में न रहे।
- समाज के हित और आरोपी के अधिकारों में संतुलन बनाना।
बेल और उसके कानूनी प्रावधान:
बेल के कानूनी प्रावधान भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS), 2023 के तहत बताए गए है:
| बेल का प्रकार | किस स्थिति में मिलती है | कानूनी धारा |
| रेगुलर बेल | गिरफ्तारी के बाद, जब आरोपी जेल में हो | BNSS की धारा 480 और 483 |
| एंटिसिपेटरी बेल | गिरफ्तारी से पहले, जब किसी को गिरफ्तारी का डर हो | BNSS की धारा 482 |
| इंटरिम बेल | थोड़े समय के लिए अस्थायी राहत, जब तक कोर्ट अंतिम फैसला न ले | कोर्ट का अधिकार |
| डिफॉल्ट बेल | जब पुलिस तय समय (60/90 दिन) में चार्जशीट दाखिल न करे | BNSS की धारा 187(2) |
बेल मामलों में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका
सुप्रीम कोर्ट आम तौर पर बेल देने वाली नियमित कोर्ट नहीं है। ज़्यादातर मामलों में बेल ट्रायल कोर्ट या हाई कोर्ट से ही मिलती है। लेकिन कुछ खास परिस्थितियों में सुप्रीम कोर्ट से भी बेल ली जा सकती है।
अनुच्छेद 136 – स्पेशल लीव पिटीशन (SLP)
अगर हाई कोर्ट बेल की अर्जी खारिज कर दे, तो आरोपी सुप्रीम कोर्ट में स्पेशल लीव पिटीशन (SLP) दाखिल कर सकता है।
अनुच्छेद 32 – रिट पिटीशन
अगर बेल न मिलने से आरोपी के मौलिक अधिकार (अनुच्छेद 21 – जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) का उल्लंघन हो रहा है, तो सीधे सुप्रीम कोर्ट में रिट पिटीशन दाखिल की जा सकती है।
अनुच्छेद 142 – सम्पूर्ण न्याय
सुप्रीम कोर्ट के पास विशेष शक्ति है कि वह न्याय सुनिश्चित करने के लिए बेल दे सकता है, भले ही अन्य कानूनों में रास्ता न दिखे।
इसका मतलब यह है कि सुप्रीम कोर्ट के पास बेल देने की संवैधानिक और विशेष शक्तियाँ दोनों मौजूद हैं।
सुप्रीम कोर्ट में बेल पिटीशन दाखिल करने की प्रक्रिया क्या है?
सुप्रीम कोर्ट में बेल पिटीशन दाखिल करना एक औपचारिक कानूनी प्रक्रिया है।
स्टेप 1: वकील से संपर्क करें
- सुप्रीम कोर्ट में पिटीशन दाखिल करने के लिए आपको एक एडवोकेट-ऑन-रिकॉर्ड (AOR) के ज़रिए ही जाना होगा।
- आपका वकील पूरे केस की स्टडी करेगा और बेल लेने के लिए ज़रूरी आधार तैयार करेगा।
स्टेप 2: पिटीशन ड्राफ्ट करना
- पिटीशन अनुच्छेद 136 या अनुच्छेद 32 के तहत दाखिल होती है।
- पिटीशन में केस की पूरी जानकारी, बेल लेने के आधार जैसे स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ, लंबे समय से ट्रायल में देरी या झूठा फँसाया जाना आदि स्पष्ट रूप से लिखना ज़रूरी होता है।
स्टेप 3: सुप्रीम कोर्ट रजिस्ट्री में दाखिला
- पिटीशन सुप्रीम कोर्ट की रजिस्ट्री में दाखिल होती है और ज़रूरी फीस जमा करनी पड़ती है।
- दाखिले के बाद कोर्ट नंबर और डायरी नंबर मिलते हैं।
स्टेप 4: कोर्ट में लिस्टिंग
केस को आम तौर पर दो जजों की बेंच के सामने लिस्ट किया जाता है।
स्टेप 5: बहस
- याचिकाकर्ता (Petitioner) का वकील बताता है कि बेल क्यों मिलनी चाहिए।
- राज्य का वकील या विपक्षी पक्ष बेल का विरोध करता है।
स्टेप 6: कोर्ट का फैसला
सुप्रीम कोर्ट अपना फैसला सुनाता है, जिसमें वह या तो बेल कुछ शर्तों के साथ मंजूर कर सकता है, पिटीशन खारिज कर सकता है या फिर हाई कोर्ट को केस पर दोबारा विचार करने का निर्देश दे सकता है।
बेल के लिए जरूरी दस्तावेज़
- बेल पिटीशन / स्पेशल लीव पिटीशन (SLP)
- वकील के हस्ताक्षर वाला वकालतनामा
- एफआईआर / शिकायत की प्रमाणित कॉपी
- निचली अदालत (ट्रायल कोर्ट और हाई कोर्ट) के आदेशों की कॉपी
- चार्जशीट / पुलिस रिपोर्ट (अगर दाखिल हो चुकी है)
- मेडिकल या निजी दस्तावेज़ (अगर ज़रूरी हों)
- एफिडेविट – पिटीशन को सपोर्ट करने के लिए
- अन्य ज़रूरी दस्तावेज़ (Annexures)
- पिटीशनर की पहचान से जुड़ा सबूत (Identity Proof)
- कोर्ट फीस (सुप्रीम कोर्ट की स्टैम्प फीस)
सुप्रीम कोर्ट किस आधार पर बेल दे सकता है?
- अपराध की प्रकृति और गंभीरता
- आरोपी के खिलाफ सबूत की मजबूती
- आरोपी के फरार होने की संभावना
- गवाहों को प्रभावित करने की आशंका
- ट्रायल में देरी
- आरोपी की उम्र और स्वास्थ्य स्थिति
- व्यक्तिगत परिस्थितियाँ
- क्या लगातार हिरासत संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन करती है
किन मामलों में बेल मुश्किल होती है?
कुछ अपराध इतने गंभीर माने जाते हैं कि उनमें सुप्रीम कोर्ट भी आसानी से बेल नहीं देती।
- ड्रग्स से जुड़े मामले: अगर मामला Commercial Quantity यानी बड़ी मात्रा का है, तो कानून बहुत सख्त है और बेल मिलना लगभग असंभव होता है।
- मनी लॉन्ड्रिंग: ऐसे मामलों में कोर्ट मानती है कि आरोपी से जुड़ा पैसा अवैध गतिविधियों का हिस्सा हो सकता है, इसलिए बेल मुश्किल होती है।
- आतंकवाद: आतंकवाद से जुड़े मामलों में राष्ट्रीय सुरक्षा का सवाल होता है, इस वजह से कोर्ट बहुत सावधानी बरतती है।
- गंभीर अपराध: हत्या, बलात्कार, बच्चों से जुड़ा यौन शोषण जैसे अपराधों को समाज के लिए बेहद खतरनाक माना जाता है, इसलिए बेल देना कठिन होता है।
सुप्रीम कोर्ट के हालिया प्रमुख निर्णय
गजानन दत्तात्रेय गोरे बनाम महाराष्ट्र राज्य (2025)
आरोपी को बॉम्बे हाई कोर्ट ने ₹25 लाख जमा करने की शर्त पर बेल दी थी, लेकिन उसने वह राशि जमा नहीं की। बाद में हाई कोर्ट ने बेल रद्द कर दी।
सुप्रीम कोर्ट का आदेश:
- अब से कोई भी बेल आदेश मूल्य वादों पर आधारित नहीं होगा।
- सभी बेल अर्जी केवल कानूनी और तथ्यात्मक आधार पर देखी जाएंगी।
- यह कदम अदालत की गरिमा बनाए रखने और न्याय प्रक्रिया को सुनिश्चित करने के लिए अहम है।
क्यों यह महत्वपूर्ण है:
- इससे बेल प्रक्रिया में न्यायिक सत्यता और विश्वसनियता बनी रहेगी।
- आर्थिक रूप से सक्षम आरोपी बेल पाने के लिए मनी ऑफर को हथियार नहीं बना पाएंगे।
- यह निर्णय न्याय व्यवस्था में पारदर्शिता सुनिश्चित करता है, जिससे आम जनता का न्याय प्रणाली पर विश्वास बना रहेगा।
किरण बनाम राजकुमार जीवराज जैन एवं अन्य (2025)
मामले की ज़रूरत और परिस्थिति
शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया कि उसे और उसके परिवार को जातिगत गालियों और हिंसा का सामना करना पड़ा क्योंकि उसने चुनाव में एक खास उम्मीदवार के खिलाफ मतदान किया था। इन आरोपों में SC/ST एक्ट, 1989 की धारा 3 और भारतीय न्याय संहिता, 2023 के प्रावधान शामिल थे।
हाई कोर्ट का निर्णय
बॉम्बे हाई कोर्ट ने माना कि शिकायत बढ़ा-चढ़ाकर की गई है। इसलिए आरोपी को एंटीसीपेटरी बेल दे दी गई, यानी पुलिस गिरफ्तारी से पहले ही उसे बेल पर छोड़ना होगा।
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय
- सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि SC/ST Act की धारा 18 के तहत एंटीसीपेटरी बेल बिल्कुल वर्जित है।
- लेकिन एक अपवाद है – अगर FIR से पहली नजर में कोई अपराध साबित ही न हो, तो बेल दी जा सकती है।
- इस केस में सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट द्वारा दी गई बेल को अवैध और jurisdictional error मानकर रद्द कर दिया।
शाहीनूर @ विक्की रहमान बनाम राजस्थान राज्य और अन्य (2025)
शाहिनूर उर्फ विक्की रहमान और अन्य ने बॉम्बे उच्च न्यायालय से नियमित बेल की मांग की थी, जिसे वहां खारिज कर दिया गया था। इसके बाद उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला:
- सुप्रीम कोर्ट ने उच्च न्यायालय का आदेश खारिज करते हुए कहा कि आरोपी निर्दोष माने जाते हैं जब तक दोषी साबित न हों। इसलिए, बेल मंजूर की जाए—सिर्फ़ सशर्तों के साथ।
- कोर्ट ने निर्देश दिया कि आरोपियों को बेल पर रिहा किया जाए और ट्रायल कोर्ट शर्तें निर्धारित करे।
- आरोपियों को आदेश दिया गया कि वे ट्रायल में सहयोग करें, अनावश्यक स्थगन (adjournments) न लें, और गवाहों या पीड़िता को प्रभावित करने की कोशिश न करें।
हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट से बेल का अंतर
| तुलना का बिंदु | हाई कोर्ट | सुप्रीम कोर्ट |
| अधिकार क्षेत्र | सीधे BNSS के तहत | असाधारण अधिकारों (अनुच्छेद 136, 32, 142) के तहत |
| कब जाते हैं? | सेशन कोर्ट से बेल न मिलने पर | हाई कोर्ट से भी बेल न मिलने पर |
| अधिकार | बेल देने का सामान्य और व्यापक अधिकार | सिर्फ़ खास और गंभीर मामलों में ही बेल |
| बेल मिलने की संभावना | अक्सर मिल जाती है | बहुत कम, केवल एक्स्ट्रा-ऑर्डिनरी मामलों में |
कानूनी मदद लेने वालों के लिए सुझाव
1. सबसे पहले ट्रायल कोर्ट और फिर हाई कोर्ट से बेल की कोशिश करें।
2. सुप्रीम कोर्ट में तभी जाएँ जब:
- बेल गलत तरीके से मना कर दी गई हो।
- आपके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हो रहा हो।
- केस बहुत ही असाधारण परिस्थिति वाला हो।
3. सुप्रीम कोर्ट में अर्जी (पिटीशन) डालते समय, उसे अच्छी तरह से ड्राफ्ट करवाएँ और मजबूत कानूनी आधार रखें।
4. तैयार रहें कि कोर्ट बेल देते समय शर्तें लगा सकता है, जैसे:
- पासपोर्ट जमा करना।
- समय-समय पर पुलिस को रिपोर्ट करना।
- गवाहों से संपर्क न करना।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट से भी बेल मिल सकती है, लेकिन यह आसानी से नहीं मिलती। कोर्ट केवल उन्हीं मामलों में दखल देता है जहाँ किसी की मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ हो, बहुत बड़ी नाइंसाफी हो गई हो, या ट्रायल में ज़रूरत से ज़्यादा देरी हो रही हो।
सुप्रीम कोर्ट कई बार साफ़ कह चुका है कि हमारी संविधान की बुनियाद व्यक्तिगत आज़ादी है, और सिद्धांत यही है कि बेल नियम है, जेल अपवाद।
क्लाइंट्स के लिए मुख्य बात यह है – अगर हाई कोर्ट ने बेल देने से मना कर दिया है और आपकी आज़ादी दांव पर लगी है, तो आप अब भी सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटा सकते हैं, क्योंकि यह न्याय का अंतिम संरक्षक है।
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FAQs
1. क्या सुप्रीम कोर्ट में सीधे बेल मिल सकती है?
हाँ, लेकिन आमतौर पर पहले हाईकोर्ट जाना जरूरी होता है।
2. बेल पिटीशन में कौन-कौन से आधार लिखे जा सकते हैं?
बीमारी, लंबा ट्रायल, झूठा केस, कमजोर सबूत।
3. क्या हत्या या NDPS जैसे गंभीर मामलों में भी सुप्रीम कोर्ट बेल दे सकता है?
हाँ, लेकिन बहुत सख्त शर्तों और खास परिस्थितियों में।
4. सुप्रीम कोर्ट बेल पिटीशन में कितना समय लगता है?
केस की प्रकृति और कोर्ट की सुनवाई पर निर्भर करता है, औसतन कुछ हफ्तों में सुनवाई हो सकती है।



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