भारत में शादी सिर्फ़ एक व्यक्तिगत फैसला नहीं है, बल्कि यह धर्म, पारिवारिक परंपराओं और सामाजिक रीति-रिवाज़ों से भी जुड़ा होता है। जब दो लोग अलग-अलग धर्मों से आते हैं और शादी करना चाहते हैं, तो उन्हें कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
इन समस्याओं का समाधान करने के लिए भारत सरकार ने स्पेशल मैरिज एक्ट, 1954 बनाया। इसके तहत कोई भी दो लोग, चाहे उनका धर्म कुछ भी हो, एक समान्य कानून के तहत शादी कर सकते हैं। इसके बावजूद भी ऐसे मामलों में विवाद अक्सर अदालत तक पहुँच जाते हैं।
भारत का सुप्रीम कोर्ट कई बार ऐसे मामलों में आगे आया है और यह साफ़ किया है कि हर व्यक्ति को अपनी पसंद के जीवनसाथी से शादी करने का मौलिक अधिकार है।
इस ब्लॉग में हम समझेंगे कि स्पेशल मैरिज एक्ट क्यों ज़रूरी है, इंटरफेथ (अंतरधार्मिक) शादी से जुड़े सुप्रीम कोर्ट के प्रमुख फ़ैसले कौन-कौन से हैं, और यह कानून किस तरह आपके अधिकारों की सुरक्षा करता है।
स्पेशल मैरिज एक्ट, 1954: अंतरधार्मिक विवाह की नींव
स्पेशल मैरिज एक्ट (SMA) क्या है?
स्पेशल मैरिज एक्ट (1954) एक ऐसा कानून है जो शादी को धर्म और जाति से अलग रखकर कानूनी मान्यता देता है।
कब लागू होता है?
- जब दो लोग अलग-अलग धर्मों से हों (Interfaith Marriage) ।
- जब एक ही धर्म में अलग-अलग जाति के हों (Inter-caste Marriage)।
- जब कपल धार्मिक रीति-रिवाज़ों से शादी नहीं करना चाहते।
मुख्य विशेषताएँ:
- शादी के लिए धर्म बदलने की कोई ज़रूरत नहीं।
- मैरिज रजिस्ट्रार के सामने सिविल प्रक्रिया से शादी होती है।
- दोनों पक्षों को शादी से पहले 30 दिन का पब्लिक नोटिस देना होता है।
- यह कानून संपत्ति के अधिकार, पैतृक हक़ और बच्चों की वैधता की सुरक्षा करता है।
- ज़रूरत पड़ने पर कपल पुलिस या कोर्ट से सुरक्षा ले सकते हैं।
सुप्रीम कोर्ट: जीवनसाथी चुनने का अधिकार और कानूनी सुरक्षा
सुप्रीम कोर्ट ने कई बार साफ़ कहा है कि किसी भी व्यक्ति को अपनी पसंद का जीवनसाथी चुनने का अधिकार है। यह अधिकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) के अंतर्गत आता है।
संविधान के अन्य महत्वपूर्ण अनुच्छेद:
- अनुच्छेद 25 – धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार – हर व्यक्ति को अपना धर्म मानने, उसका प्रचार करने और उसका पालन करने की स्वतंत्रता है। इसका मतलब है कि शादी के लिए धर्म बदलना या न बदलना, दोनों पूरी तरह व्यक्तिगत निर्णय हैं।
- अनुच्छेद 14 – समानता का अधिकार – हर व्यक्ति कानून की नज़र में समान है। शादी के मामले में भी किसी के साथ धर्म, जाति, लिंग या वर्ग के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता।
- अनुच्छेद 15 – भेदभाव-विरोधी अधिकार – राज्य किसी नागरिक के साथ धर्म, जाति, लिंग, जन्मस्थान आदि के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकता। इसका सीधा मतलब है कि शादी के अधिकार में भी कोई भेदभाव मान्य नहीं है।
महत्वपूर्ण सुप्रीम कोर्ट के फैसले – अंतरधार्मिक विवाह
यहां कुछ प्रमुख मामले हैं जहाँ सुप्रीम कोर्ट ने अंतरधार्मिक (Interfaith) जोड़ों के अधिकार की रक्षा की:
लता सिंह बनाम उत्तर प्रदेश (2006)
- मुद्दा: क्या एक वयस्क महिला अपनी पसंद के व्यक्ति से शादी कर सकती है, भले वह अलग धर्म या जाति का हो?
- निर्णय: सुप्रीम कोर्ट ने महिला के अधिकार की पुष्टि की और पुलिस को जोड़े की सुरक्षा का आदेश दिया।
- प्रभाव: अंतरधार्मिक विवाह को व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार माना गया।
शफिन जहान बनाम आसोकन के.एम. (2018) – हडिया केस
- मुद्दा: क्या माता-पिता वयस्क बेटी के धर्म परिवर्तन और शादी पर नियंत्रण कर सकते हैं?
- निर्णय: सुप्रीम कोर्ट ने हडिया की शादी को बहाल किया और कहा कि धर्म और जीवनसाथी चुनने का अधिकार मौलिक है।
- प्रभाव: वयस्क बच्चों के निर्णय में परिवार का हस्तक्षेप अवैध; व्यक्तिगत स्वतंत्रता मजबूत हुई।
शक्ति वहिनी बनाम भारत संघ (2018)
- मुद्दा: क्या खाप पंचायत या परिवार अंतरधार्मिक/अंतरजातीय विवाह में हस्तक्षेप कर सकते हैं?
- निर्णय: कोर्ट ने कहा कि किसी को भी दो सहमति वाले वयस्कों की शादी में बाधा डालने का अधिकार नहीं है।
- प्रभाव: अंतरधार्मिक और अंतरजातीय जोड़ों को सामाजिक हिंसा और दबाव से सुरक्षा मिली।
आशा रंजन बनाम बिहार राज्य (2017)
- मुद्दा: क्या वयस्कों का साथी चुनने का अधिकार संवैधानिक रूप से सुरक्षित है?
- निर्णय: कोर्ट ने कहा कि वयस्कों की स्वतंत्रता को संवेदनशील मामलों में भी बाधित नहीं किया जा सकता।
- प्रभाव: प्रेम और शादी में व्यक्तिगत चुनाव को अनुच्छेद 21 के तहत मौलिक अधिकार माना गया।
सोनी जेरी बनाम जेरी डगलस (2018)
- मुद्दा: क्या माता-पिता अपने वयस्क बच्चों की अंतरधार्मिक शादी रोक सकते हैं?
- निर्णय: कोर्ट ने कहा कि माता-पिता वयस्क बच्चों के जीवन निर्णय में हस्तक्षेप नहीं कर सकते।
- प्रभाव: वयस्कों को अपने जीवनसाथी चुनने की पूरी स्वतंत्रता मिली।
सलामत अंसारी बनाम उत्तर प्रदेश (अलाहाबाद हाई कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुमोदित)
- मुद्दा: क्या धर्म परिवर्तन कानूनों का गलत इस्तेमाल कर अंतरधार्मिक जोड़ों को परेशान किया जा सकता है?
- निर्णय: कोर्ट ने कहा कि साथी चुनने का अधिकार, धर्म की परवाह किए बिना, संविधान द्वारा सुरक्षित है।
- प्रभाव: धर्म परिवर्तन कानूनों के गलत इस्तेमाल के खिलाफ अंतरधार्मिक जोड़ों की सुरक्षा मजबूत हुई।
व्यावहारिक पहलू: अंतरधार्मिक विवाह में आने वाली समस्याएँ
- परिवार और समाज का विरोध: अक्सर परिवार या समुदाय शादी का विरोध करते हैं। इसमें मानसिक दबाव, धमकियाँ, कभी-कभी शारीरिक हिंसा भी शामिल हो सकती है। कई जोड़े अपने प्यार के कारण सामाजिक बहिष्कार या तनाव का सामना करते हैं।
- पुलिस द्वारा परेशानियाँ: कुछ मामलों में पुलिस भी झूठे आरोपों के आधार पर हस्तक्षेप कर सकती है, जैसे अपहरण, जबरन धर्म परिवर्तन, या झूठे FIR दर्ज करना। इससे दंपति को कानूनी और मानसिक दोनों तरह की परेशानियाँ होती हैं।
- लव जिहाद कानूनों का प्रभाव: कुछ राज्यों में ऐसे कानून हैं जो धर्म परिवर्तन और अंतरधार्मिक विवाह को लेकर सख्ती बढ़ाते हैं। इन कानूनों का गलत इस्तेमाल कर जोड़ों को परेशान किया जा सकता है। इससे शादी की प्रक्रिया में देरी और तनाव बढ़ता है।
- मैरिज रजिस्ट्रेशन में बाधाएँ: स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत शादी दर्ज करने के लिए नोटिस पीरियड (30 दिन का सार्वजनिक नोटिस) देना पड़ता है। कभी-कभी समुदाय या परिवार ऑब्जेक्शन फाइल कर देते हैं, जिससे विवाह पंजीकरण में बाधाएँ आती हैं और शादी की प्रक्रिया लंबी हो जाती है।
सुप्रीम कोर्ट का दृष्टिकोण: सुरक्षा और स्वतंत्रता
- अंतरधार्मिक विवाह में राज्य हस्तक्षेप नहीं कर सकता: सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि यदि दोनों बालिग हैं, तो धर्म अलग होने पर भी राज्य उनकी शादी में दखल नहीं दे सकता।
- पुलिस का कर्तव्य → जोड़ों की सुरक्षा करना, न कि परेशान करना: पुलिस को चाहिए कि वह झूठे मुकदमे या दबाव डालने की बजाय ऐसे जोड़ों को सुरक्षा और सहयोग प्रदान करे।
- जबरन अलगाव या पारिवारिक दबाव → असंवैधानिक है: परिवार या समाज यदि किसी बालिग जोड़े को जबरन अलग करने का प्रयास करता है, तो यह संविधान के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।
अंतरधार्मिक विवाह की प्रक्रिया – विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के तहत
1. नोटिस दाखिल करना
- लड़का और लड़की को अपनी शादी का इरादा लिखित रूप से मैरिज रजिस्ट्रार को बताना होता है।
- यह नोटिस उसी जिले में दिया जाता है जहाँ दोनों में से कोई एक कम से कम 30 दिन से रह रहा हो।
2. 30 दिन का सार्वजनिक नोटिस अवधि
- मैरिज रजिस्ट्रार इस नोटिस को अपने कार्यालय के सार्वजनिक बोर्ड पर लगाता है।
- अगर किसी को कोई आपत्ति हो (जैसे पहले से शादीशुदा होना या उम्र पूरी न होना), तो वह 30 दिन के अंदर आपत्ति दर्ज करा सकता है।
3. जरूरी दस्तावेज़
- उम्र का प्रमाण: आधार कार्ड, पासपोर्ट, स्कूल सर्टिफिकेट आदि।
- पते का प्रमाण: वोटर आईडी, राशन कार्ड, बिजली का बिल आदि।
- फोटोग्राफ: पासपोर्ट साइज फोटो।
- एफिडेविट: जिसमें यह लिखा हो कि दोनों अविवाहित हैं और शादी के योग्य हैं।
4. मैरिज रजिस्ट्रार के सामने विवाह
- 30 दिन की अवधि पूरी होने के बाद दोनों पक्ष मैरिज रजिस्ट्रार के सामने उपस्थित होते हैं।
- विवाह तीन गवाहों की मौजूदगी में कराया जाता है।
- इसमें किसी धार्मिक रस्म या पूजा की जरूरत नहीं होती, यह पूरी तरह सिविल प्रक्रिया है।
5. मैरिज सर्टिफिकेट प्राप्त करना
- विवाह के तुरंत बाद मैरिज रजिस्ट्रार एक मैरिज सर्टिफिकेट जारी करता है।
- यह सर्टिफिकेट आपके वैवाहिक रिश्ते का कानूनी सबूत होता है।
- इससे आपको संपत्ति, उत्तराधिकार, बच्चों की वैधता और अन्य कानूनी अधिकारों की सुरक्षा मिलती है।
कानूनी उपाय
- पुलिस प्रोटेक्शन पिटीशन – अगर परिवार या समाज से धमकी हो तो पुलिस सुरक्षा के लिए कोर्ट में याचिका दायर कर सकते हैं।
- हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में रिट पिटीशन – मौलिक अधिकारों की रक्षा और शादी की आज़ादी सुनिश्चित करने के लिए सीधे उच्च न्यायालय या सुप्रीम कोर्ट जा सकते हैं।
- FIR रद्द करना (BNSS की धारा 482) – यदि परिवार या समाज झूठा केस दर्ज कराए तो हाई कोर्ट में FIR रद्द करने की अर्जी दायर की जा सकती है।
निष्कर्ष
भारत में अंतरधार्मिक विवाह सिर्फ दो लोगों का रिश्ता नहीं है, बल्कि यह आज़ादी, समानता और धर्मनिरपेक्ष सोच का प्रतीक है। समाज बदल रहा है और ऐसे विवाह धीरे-धीरे बढ़ रहे हैं। अदालतें भी अब ज़्यादा सकारात्मक नज़रिए से ऐसे मामलों को देखती हैं।
स्पेशल मैरिज एक्ट ऐसे जोड़ों के लिए सबसे बड़ा सहारा है, क्योंकि यह धर्म या जाति से ऊपर उठकर शादी को कानूनी सुरक्षा देता है। सुप्रीम कोर्ट ने भी साफ कहा है कि शादी का आधार सिर्फ़ दोनों की सहमति और गरिमा है, न कि धर्म या समाज का दबाव।
आगे चलकर कुछ सुधार ज़रूरी हैं, जैसे 30 दिन की नोटिस अवधि को छोटा करना, ऑनर किलिंग जैसी घटनाओं से बचाने के लिए मज़बूत सुरक्षा देना, और धर्म-परिवर्तन से जुड़े मामलों पर साफ़ नियम बनाना।
आखिर में, अंतरधार्मिक विवाह भारत को और मज़बूत धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र की ओर ले जाते हैं। यह सिर्फ़ क़ानून का हक़ नहीं, बल्कि समाज में बदलाव और नए विचारों की पहचान भी हैं।
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FAQs
1. क्या शादी करने के लिए धर्म बदलना ज़रूरी है?
नहीं, स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत बिना धर्म बदले शादी की जा सकती है।
2. क्या इंटरफेथ मैरिज में माता-पिता की मंज़ूरी चाहिए?
नहीं, अगर दोनों बालिग़ (18+ और 21+) हैं तो माता-पिता की सहमति कानूनी रूप से ज़रूरी नहीं है।
3. क्या पुलिस इंटरफेथ शादी रोक सकती है?
नहीं, पुलिस शादी रोक नहीं सकती। केवल अपराध होने पर ही हस्तक्षेप कर सकती है। कोर्ट सुरक्षा भी दे सकता है।
4. अगर परिवार शादी की धमकी दे तो क्या करें?
आप पुलिस से सुरक्षा मांग सकते हैं या हाई कोर्ट/सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर सकते हैं।
5. स्पेशल मैरिज एक्ट में नोटिस पीरियड कितना है?
30 दिन का पब्लिक नोटिस ज़रूरी है, लेकिन इसके दुरुपयोग से बचने के लिए इसे कम करने पर चर्चा चल रही है।
6. क्या स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत शादी विदेश में भी मान्य होगी?
हाँ, SMA के तहत पंजीकृत विवाह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी वैध माना जाता है।



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