NRI माता-पिता के बीच कस्टडी डिस्प्यूट्स – जानिए सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?

Custody Disputes Between NRI Parents – What the Supreme Court Said

कई भारतीय परिवार बेहतर मौके, अच्छी नौकरी और बच्चों के उज्जवल भविष्य के सपने लेकर विदेश जाते हैं। लेकिन जब रिश्ता जब टूट जाता है, तो वही दूरी जो कभी खुशियों की वजह थी, अब माता-पिता और बच्चों के बीच दीवार बन जाती है।

कई बार माता या पिता अपने बच्चे को डर से या प्यार में भारत ले आते है। वही दूसरा पक्ष विदेश में रह जाता है और यह पारिवारिक झगड़ा अंतरराष्ट्रीय कानूनी विवाद बन जाता है।

सुप्रीम कोर्ट के सामने ऐसे कई मामले आए हैं, जहाँ दोनों माता-पिता अपनी जगह सही लगते हैं, एक भारत में बच्चे की सुरक्षा की बात करता है, तो दूसरा विदेशी अदालत के आदेश को लागू करवाना चाहता है। ऐसे समय में सबसे बड़ा सवाल उठता है, किसका कानून ज़्यादा मायने रखता है, विदेशी अदालत का या बच्चे की भलाई का?

इस ब्लॉग में हम जानेंगे की सुप्रीम कोर्ट कैसे अंतरराष्ट्रीय बच्चे की कस्टडी के डिस्प्यूट्स को संभालती हैं, कौन से कानून लागू होते हैं, और माता-पिता क्या कदम उठा सकते हैं।

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भारत में बच्चो की कस्टडी से जुड़े कानून – क्या है कानूनी आधार?

भारत में बच्चे की कस्टडी यानी बच्चे की देखभाल और पालन-पोषण का अधिकार मुख्य रूप से कुछ खास कानूनों के तहत तय किया जाता है, जैसे –

  • गार्डऑन्स एंड वार्डस एक्ट, 1890 – यह सभी धर्मों पर लागू होता है और बताता है कि बच्चे का लीगल गार्डियन कौन होगा।
  • हिन्दू माइनॉरिटी एंड गार्डियनशिप एक्ट, 1956 – हिंदू परिवारों में गार्डियनशिप और कस्टडी के नियम तय करता है।
  • मुस्लिम, क्रिश्चियन और पारसी व्यक्तिगत कानून) – हर धर्म के अपने अलग नियम होते हैं, जिनके अनुसार अदालत बच्चे की कस्टडी तय करती है।
  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता 2023 की धारा की धारा 100 और 101 – अगर कोई बच्चा अवैध रूप से किसी के पास रोका गया है, तो अदालत पुलिस के माध्यम से बच्चे को छुड़ाने का आदेश दे सकती है।
  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 और 32 – इन अनुच्छेदों के तहत हैबियस कॉर्पस रिट पिटीशन दायर की जा सकती है, जिससे अदालत तुरंत हस्तक्षेप कर बच्चे को सही गार्डियन के पास भेज सकती है।

मुख्य सिद्धांत – “वेलफेयर ऑफ़ चाइल्ड”

भारतीय अदालतें हमेशा एक ही बात पर ज़ोर देती हैं – “बच्चे का भला और उसका भविष्य सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण है।”

इसका मतलब है कि अदालत इस बात को देखती है कि बच्चे को कौन-सा माहौल ज्यादा प्यार, सुरक्षा, शिक्षा और भावनात्मक स्थिरता देगा। माता-पिता में से कौन अमीर है या किसके पास कानूनी अधिकार ज़्यादा है, उससे ज़्यादा अहम यह होता है कि बच्चे का जीवन किसके साथ बेहतर और सुरक्षित रहेगा।

NRI कस्टडी केस – क्यों होते है इतने जटिल?

जब NRI माता-पिता (जो विदेश में रहते हैं) के बीच बच्चे की कस्टडी को लेकर विवाद होता है, तो मामला केवल पारिवारिक नहीं रह जाता, यह दो देशों और दो कानूनी व्यवस्थाओं के बीच की जटिल लड़ाई बन जाता है।

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ऐसे मामलों में दिक्कतें कई कारणों से बढ़ जाती हैं:

1. माता-पिता अलग-अलग देशों में रहते हैं: एक गार्डियन भारत में और दूसरा विदेश में होता है, जिससे बच्चे को मिलना या पालना कानूनी और व्यावहारिक दोनों ही रूप से मुश्किल हो जाता है।

2. विदेशी और भारतीय अदालतों के आदेशों में टकराव: अक्सर ऐसा होता है कि विदेशी अदालत बच्चे की कस्टडी किसी एक माता-पिता को देती है, जबकि भारतीय अदालत इसके उलट आदेश देती है। इससे यह तय करना कठिन हो जाता है कि किस आदेश को मानना चाहिए।

3. क्षेत्राधिकार का सवाल: सबसे बड़ा सवाल यह होता है — “किस देश की अदालत को बच्चे की कस्टडी का फैसला करने का अधिकार है?” अगर बच्चा भारत में है, तो भारतीय अदालतें मानती हैं कि बच्चे का हित पहले देखा जाएगा, भले ही विदेशी अदालत ने कुछ और कहा हो।

4. बच्चे को अवैध रूप से एक देश से दूसरे देश ले जाना या रोकना: कई बार एक माता-पिता बिना दूसरे की अनुमति के बच्चे को भारत ले आते हैं या विदेश वापस भेजने से मना कर देते हैं। यह स्थिति “child abduction” यानी बच्चे के अवैध रूप से रोके जाने जैसी बन जाती है।

5. भारत Hague Convention (1980) का सदस्य नहीं है: यह एक इंटरनेशनल लॉ है जो बच्चों को एक देश से दूसरे देश में गलत तरीके से ले जाने के मामलों को सुलझाने में मदद करता है। क्योकि भारत इसका हिस्सा नहीं है, इसलिए विदेशी अदालतों के कस्टडी आदेशों को भारत में लागू करना अक्सर मुश्किल हो जाता है।

किस देश की अदालत को बच्चे की कस्टडी का अधिकार होता है?

यह सवाल हर NRI केस में सबसे पहले उठता है, “कौन सी अदालत को अधिकार है कि वह बच्चे की कस्टडी तय करे?” इसे समझने के लिए “Doctrine of Forum Conveniens” लागू होती है, यानी जिस अदालत के लिए मामला सुनना सबसे उपयुक्त हो, वहीं केस चलना चाहिए।

अगर बच्चा भारत में रह रहा है, तो आमतौर पर भारतीय अदालत को अधिकार होता है, भले ही शादी या कस्टडी ऑर्डर विदेश में हुआ हो।

रुचि माजू बनाम संजीव माजू (2011) 6 SCC 479 – सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर बच्चा भारत में रह रहा है, तो भारतीय अदालत उस मामले की सुनवाई कर सकती है, चाहे विदेशी कोर्ट में कार्यवाही चल रही हो। यह सिद्धांत बच्चों के सुरक्षा और स्थिरता को प्राथमिकता देता है।

कोर्ट किन बातों पर ध्यान देती है?

  • बच्चे की उम्र और लगाव – बच्चा किससे ज़्यादा जुड़ा है, यह देखा जाता है।
  • माता-पिता की आर्थिक क्षमता – कौन माता-पिता बच्चे का खर्च अच्छे से उठा सकता है।
  • बच्चे की स्कूलिंग और कल्चर – बच्चे की पढ़ाई और परवरिश का माहौल कैसा है।
  • बिहेवियर और मेंटल हेल्थ – बच्चा भावनात्मक और मानसिक रूप से कैसा महसूस करता है।
  • विदेश में बच्चे का वीज़ा या स्टेटस – बच्चे का वहां रहना कानूनी है या नहीं।
  • माता-पिता का डोमिसाइल – कौन सा माता-पिता भारत या विदेश में स्थायी है।
  • पैरेंटल एलिनेशन – क्या एक माता-पिता बच्चे को दूसरे से दूर कर रहा है।
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NRI माता-पिता को कानूनी कार्रवाई से पहले क्या जानना चाहिए?

  • अनुभवी वकील से सलाह लें: हमेशा ऐसे वकील से संपर्क करें जो अंतरराष्ट्रीय पारिवारिक मामलों (International Family Law) में अनुभव रखता हो, ताकि सही कानूनी दिशा मिले।
  • बिना मंजूरी बच्चे को न ले जाएं: दूसरे माता-पिता की अनुमति के बिना बच्चे को भारत या विदेश ले जाना कोर्ट में गंभीर अपराध माना जा सकता है।
  • पहले बातचीत से हल निकालें: कोर्ट भी चाहती है कि माता-पिता आपसी समझ से बच्चे की भलाई के लिए समाधान निकालें, ताकि विवाद कम हों।
  • जरूरी दस्तावेज तैयार रखें: कोर्ट में मामला आने पर पासपोर्ट, यात्रा दस्तावेज और पुराने कोर्ट ऑर्डर बहुत काम आते हैं, इन्हें संभालकर रखें।
  • अगर बच्चा भारत में है: भारतीय कानून के तहत बच्चे की कस्टडी या मिलने के अधिकार (visitation rights) के लिए आवेदन करें ताकि कानूनी सुरक्षा मिले।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्थापित प्रमुख कानूनी सिद्धांत

1. बच्चे का वेलफेयर सर्वोपरि है

किसी भी कस्टडी विवाद में अदालत का सबसे बड़ा उद्देश्य बच्चे का हित और भलाई होती है, न कि माता-पिता के अधिकार।

गौरव नागपाल बनाम सुमेधा नागपाल (2009) 1 SCC 42 – सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि बच्चे का “welfare” ही अंतिम और सर्वोच्च विचार है, बाकी सभी बातों को उसके अनुसार देखा जाएगा।

2. विदेशी अदालतों का सम्मान ज़रूरी है, लेकिन सर्वोच्च नहीं

भारत की अदालतें विदेशी अदालतों के आदेशों का सम्मान करती हैं, पर वे भारत के बच्चे के हित को सबसे पहले रखती हैं।

सूर्या वदनन बनाम तमिलनाडु राज्य (2015) 5 SCC 450 – सुप्रीम कोर्ट ने माना कि विदेशी अदालत के आदेशों का सम्मान किया जाना चाहिए, लेकिन अगर बच्चा भारत में है, तो उसकी भलाई पहले देखी जाएगी।

3. विदेशी कोर्ट के आदेश बाध्यकारी नहीं, केवल सलाह के रूप में माने जाते हैं

विदेशी कोर्ट के आदेश भारत में सीधे लागू नहीं होते, वे सिर्फ मार्गदर्शन या सलाह के तौर पर लिए जाते हैं।

नित्या आनंद राघवन बनाम राज्य (NCT दिल्ली) (2017) 8 SCC 454 – सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि विदेशी आदेश बाध्यकारी नहीं हैं; भारतीय कोर्ट स्वतंत्र रूप से बच्चे के हित के आधार पर फैसला करेगी।

4. बच्चे को अवैध रूप से ले जाना या रोकना कोर्ट अनुचित मानती है

अगर कोई माता-पिता बिना अनुमति बच्चे को दूसरे देश ले जाता है या रोकता है, तो यह बच्चे के मानसिक संतुलन के लिए हानिकारक माना जाता है।

वी. रवि चंद्रन (डॉ.) बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया (2010) 1 SCC 174 – कोर्ट ने कहा कि बच्चे को अवैध रूप से हटाना अनुचित है, और बच्चे को उसकी मूल जगह वापस भेजने पर विचार किया जाना चाहिए।

5. हर केस अपने तथ्यों पर निर्भर करता है

किसी भी कस्टडी केस में एक जैसा नियम नहीं लगाया जा सकता, हर मामला अलग परिस्थितियों पर निर्भर करता है।

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रुचि माजू बनाम संजीव माजू (2011) 6 SCC 479 – सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हर केस की परिस्थितियाँ अलग होती हैं, इसलिए फैसला केस के वास्तविक तथ्यों और बच्चे के कल्याण को देखकर ही होगा।

6. बच्चे की मानसिक, शैक्षणिक और भावनात्मक स्थिरता सबसे ज़रूरी है

कोर्ट हमेशा यह देखती है कि बच्चा जिस माहौल में रह रहा है, वहाँ उसकी शिक्षा, स्वास्थ्य और मानसिक शांति बनी रहे।

शिल्पा अग्रवाल बनाम अविरल मित्तल (2010) 1 SCC 591 – सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि बच्चे को ऐसी जगह रहना चाहिए जहाँ उसकी शिक्षा और भावनात्मक सुरक्षा बनी रहे, यही उसका “best interest” है।

निष्कर्ष

NRI माता-पिता के बीच कस्टडी की लड़ाइयों में असली जीत या हार किसी की नहीं होती, क्योंकि ऐसे झगड़ों से सबसे ज़्यादा समस्या बच्चों को होती है। सुप्रीम कोर्ट का संदेश साफ है, बच्चे कोई ट्रॉफी नहीं हैं, बल्कि उनकी भावनाएँ और सुरक्षा सबसे महत्वपूर्ण हैं।

कानून की नज़र में ये मायने नहीं रखता कि माता-पिता किस देश में रहते हैं, बल्कि ये ज़रूरी है कि बच्चा कहाँ सुरक्षित, खुश और प्यार में महसूस करता है। असली सवाल यह नहीं होना चाहिए कि “कस्टडी किसे मिले?”, बल्कि यह होना चाहिए कि “बच्चे की ज़िंदगी बेहतर कैसे बने?

माता-पिता को चाहिए कि ग़ुस्से और अहंकार से ऊपर उठकर आपसी समझदारी और सहयोग का रास्ता चुनें। कोर्ट का भी यही प्रयास रहता है कि न्याय सिर्फ़ कानून के हिसाब से नहीं, बल्कि बच्चे के दिल की धड़कन के साथ हो।

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FAQs

1. क्या भारतीय कोर्ट विदेशी कोर्ट के आदेश को बदल सकती है?

हाँ, भारतीय कोर्ट विदेशी कोर्ट के आदेश से बंधी नहीं होती। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि बच्चे का भला किसी भी विदेशी आदेश से ज़्यादा अहम है।

2. अगर एक माता-पिता बिना अनुमति के बच्चा भारत ले आए तो क्या करें?

दूसरा माता-पिता हैबियस कॉर्पस पिटीशन हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में दायर कर सकता है ताकि बच्चे को वापस लाया जा सके। परिवारिक वकील की मदद लेना ज़रूरी है।

3. क्या भारत “Hague Convention” (1980) का सदस्य है?

नहीं। भारत ने इस समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं। इसलिए विदेशी कोर्ट के आदेश भारत में अपने आप लागू नहीं होते, हर मामला अलग से देखा जाता है।

4. सुप्रीम कोर्ट NRI मामलों में बच्चे की कस्टडी कैसे तय करता है?

कोर्ट हमेशा बच्चे की भावनात्मक, शैक्षणिक और शारीरिक भलाई को सबसे ऊपर रखता है। माता-पिता की राष्ट्रीयता या विदेशी आदेशों से ज़्यादा बच्चे की भलाई अहम होती है।

5. क्या माता-पिता कोर्ट जाए बिना मामला सुलझा सकते हैं?

हाँ, मेडिएशन (आपसी समझौते) को कोर्ट प्रोत्साहित करती है। अगर दोनों माता-पिता मिलकर तय करें, तो कोर्ट आमतौर पर उसे मंज़ूरी दे देती है, बच्चे के हित को ध्यान में रखकर।

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