फॉरेन इन्वेस्टर्स और इंडियन पार्टनर्स के बीच शेयरहोल्डर डिस्प्यूट  कैसे सुलझाएँ?

How to resolve shareholder disputes between foreign investors and Indian partners

जब कोई विदेशी पार्टनर किसी भारतीय पार्टनर के साथ बिज़नेस शुरू करता है, तो यह भरोसे, मौके और तरक्की की निशानी होती है। लेकिन कई बार काम करने के तरीके, बिज़नेस चलाने के तरीके या मुनाफे को लेकर मतभेद हो जाते हैं। जो बात बोर्ड के फैसलों पर छोटे झगड़े से शुरू होती है, वह आगे चलकर गंभीर शेयरहोल्डर डिस्प्यूट बन जाते है, जिसमें धोखाधड़ी, गलत प्रबंधन या समझौते के उल्लंघन के आरोप लग सकते हैं।

ऐसे डिस्प्यूट सिर्फ पार्टनरों के बीच नहीं रहते, बल्कि पूरे बिज़नेस को नुकसान पहुँचा सकते हैं, पार्टनर्स का भरोसा हिला सकते हैं और कानूनी कार्रवाई तक पहुँच सकते हैं। इसीलिए भारतीय कानून में ऐसे मामलों को सुलझाने के लिए अदालतों, आर्बिट्रेशन और ट्रिब्यूनल्स के ज़रिए एक तय प्रक्रिया दी गई है, ताकि डिस्प्यूट निष्पक्ष और सही तरीके से हल हो सके।

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शेयरहोल्डर डिस्प्यूट के आम कारण

किसी भी डिस्प्यूट को सुलझाने से पहले यह समझना ज़रूरी है कि झगड़ा हुआ क्यों। भारत और विदेशी पार्टनर के बीच साझेदारी में अक्सर कुछ आम कारण देखने को मिलते हैं —

1. कंपनी का गलत प्रबंध(Mismangament): कई बार एक पार्टनर (अक्सर लोकल पार्टनर या बहुमत शेयर वाला) कंपनी को ऐसे चलाता है जिससे दूसरे पार्टनर, खासकर विदेशी पार्टनर, का नुकसान होता है।

2. शेयरहोल्डर एग्रीमेंट का उल्लंघन: जब कोई पार्टनर तय नियमों का पालन नहीं करता, जैसे शेयर ट्रांसफर की शर्तें, एग्ज़िट क्लॉज़ या मुनाफे का बाँटवारा, तो डिस्प्यूट शुरू हो जाता है।

3. नियंत्रण और वोटिंग अधिकारों पर डिस्प्यूट : कई बार फैसले लेने की ताकत, डायरेक्टर की नियुक्ति या मैनेजमेंट कंट्रोल को लेकर दोनों पार्टनरों में मतभेद हो जाता है।

4. जानकारी छिपाना या धोखाधड़ी: जब कोई पार्टनर वित्तीय जानकारी छिपाता है, पैसे का गलत इस्तेमाल करता है या झूठी जानकारी देता है, तो यह डिस्प्यूट को और बढ़ा देता है।

5. डेडलॉक स्थिति: अगर दोनों पार्टनरों के पास बराबर शेयर हैं और किसी बड़े फैसले पर सहमति नहीं बनती, तो कंपनी का काम रुक जाता है।

6. वैल्यूएशन और एग्ज़िट डिस्प्यूट: कई बार कंपनी से बाहर निकलते समय या शेयर बेचते समय उनकी सही कीमत पर सहमति नहीं बन पाती, जिससे झगड़ा हो जाता है।

भारत में शेयरहोल्डर डिस्प्यूट से जूड़े क्या कानूनी प्रावधान है?

भारत में विदेशी और भारतीय पार्टनरों के बीच शेयरहोल्डर डिस्प्यूट्स को सुलझाने के लिए कई कानून बनाए गए हैं। ये कानून बताते हैं कि डिस्प्यूट कैसे और किस तरह सुलझाए जाएँ:

1. कंपनी एक्ट, 2013: यह कानून कंपनी के संचालन, गलत प्रबंधन (mismanagement) और पार्टनरों के साथ अन्याय (oppression) से जुड़ी शिकायतों को नियंत्रित करता है।

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2. फॉरेन एक्सचेंज मैनेजमेंट एक्ट, 1999: यह कानून बताता है कि विदेशी इन्वेस्टमेंट कैसे किया जाए, पैसा भारत में और बाहर कैसे भेजा या निकाला जाए।

3. आर्बिट्रेशन एंड कॉंसिलिएशन एक्ट, 1996: अगर डिस्प्यूट होता है, तो यह कानून बताता है कि उसे कोर्ट के बजाय “अरबिट्रेशन” यानी आपसी सहमति से कैसे सुलझाया जा सकता है।

4. SEBI नियम: अगर कंपनी स्टॉक एक्सचेंज में लिस्टेड है, तो SEBI के नियम लागू होते हैं। यह पार्टनर्स की सुरक्षा और निष्पक्ष व्यापार सुनिश्चित करते हैं।

5. अनुबंध अधिनियम, 1872 (Contract Act, 1872): यह कानून बताता है कि शेयरहोल्डर एग्रीमेंट कानूनी रूप से मान्य कैसे होगा और इसके उल्लंघन पर क्या होगा।

शेयरहोल्डर एग्रीमेंट की भूमिका

शेयरहोल्डर एग्रीमेंट विदेशी और भारतीय पार्टनरों के बीच रिश्ते की बुनियाद होता है। इसमें यह तय किया जाता है कि कंपनी कैसे चलेगी और दोनों पार्टनरों के अधिकार क्या होंगे।

आमतौर पर इसमें शामिल होते हैं —

  • शेयर की हिस्सेदारी और वोटिंग अधिकार
  • कंपनी के प्रबंधन और बोर्ड की संरचना
  • मुनाफे का बाँटवारा
  • बाहर निकलने या शेयर बेचने की शर्तें
  • डिस्प्यूट सुलझाने की प्रक्रिया (अरबिट्रेशन, कानून और क्षेत्राधिकार आदि)

जब किसी बात पर झगड़ा होता है, तो कोर्ट या आर्बिट्रेटर सबसे पहले SHA को ही देखता है।

कंपनी एक्ट, 2013 के तहत उपाय

कंपनी एक्ट, 2013 की धारा 241 और 242 के तहत कोई भी शेयरहोल्डर (विदेशी साझेदार भी) NCLT यानी नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल में शिकायत कर सकता है अगर:

  • कंपनी के कामकाज ऐसे तरीके से चल रहे हों जो किसी शेयरहोल्डर के हितों के खिलाफ हों, या
  • कंपनी में ऐसा गलत प्रबंधन हो जिससे आर्थिक नुकसान या निवेश का खतरा हो।

NCLT इन स्थितियों में ये आदेश दे सकता है:

  • गलत तरीके से काम करने वाले डायरेक्टर को हटाना,
  • कंपनी के कामकाज को सही दिशा में चलाने के लिए नियम तय करना,
  • शेयरों को उचित मूल्य पर खरीदने या बेचने का आदेश देना,
  • आगे किसी भी अन्यायपूर्ण या नुकसानदेह कार्य को रोकना।

अगर किसी को NCLT के फैसले से असहमति है, तो वह NCLAT (अपील ट्रिब्यूनल) में जा सकता है, और वहाँ से आगे सुप्रीम कोर्ट में अपील की जा सकती है।

आर्बिट्रेशन – फॉरेन पाटनर्शिप डिस्प्यूट का सबसे बेहतर तरीका

फॉरेन पाटनर्शिप डिस्प्यूट ज़्यादातर मामलों में अरबिट्रेशन को कोर्ट केस से बेहतर मानते हैं क्योंकि यह —

  • तेज़ और निजी प्रक्रिया होती है,
  • इसका फैसला (award) दुनिया के कई देशों में मान्य होता है,
  • दोनों पक्ष मिलकर तय कर सकते हैं कि डिस्प्यूट कहाँ और किस कानून के तहत सुलझेगा।

इंटरनेशनल कमर्शियल आर्बिट्रेशन: अगर किसी डिस्प्यूट में एक पक्ष विदेशी कंपनी या व्यक्ति है, तो वह इंटरनेशनल आर्बिट्रेशन के तहत आता है (धारा 2(1)(f), आर्बिट्रेशन एंड कॉंसिलिएशन एक्ट, 1996)।

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अरबिट्रेशन की प्रक्रिया:

  1. अपने शेयरहोल्डर एग्रीमेंट में दी गई अरबिट्रेशन क्लॉज़ को लागू करें।
  2. दोनों पक्ष मिलकर या तय नियमों के अनुसार अरबिट्रेटर नियुक्त करें।
  3. तय स्थान (भारत या विदेश) पर आर्बिट्रेशन की सुनवाई करें।
  4. अरबिट्रल अवॉर्ड (फैसला) प्राप्त करें।
  5. अगर फैसला किसी विदेशी देश में हुआ है, तो उसे भारत में लागू करवाने के लिए आर्बिट्रेशन एक्ट के Part II के तहत प्रवर्तन कराया जा सकता है।

शेयरहोल्डर डिस्प्यूट्स पर कोर्ट के महत्वपूर्ण फैसले

क्लोरो कंट्रोल्स इंडिया प्राइवेट लिमिटेड बनाम सेवरन ट्रेंट वाटर प्यूरिफिकेशन इंक. (2013)

  • फैसला: सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर किसी डिस्प्यूट में कॉर्पोरेट ग्रुप का हिस्सा होने के कारण दूसरे पक्ष की भूमिका जुड़ी है, तो भले ही उसने आर्बिट्रेशन एग्रीमेंट पर सीधे हस्ताक्षर न किए हों, फिर भी वह अरबिट्रेशन प्रक्रिया में शामिल हो सकता है।
  • महत्त्व: इस फैसले ने यह स्पष्ट किया कि जटिल कंपनी संरचनाओं में भी अरबिट्रेशन का दायरा बढ़ाया जा सकता है, ताकि न्याय से कोई बच न सके।

टाटा संस लिमिटेड बनाम साइरस इन्वेस्टमेंट्स प्राइवेट लिमिटेड (2021)

  • फैसला: सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि किसी डायरेक्टर को हटाना अपने-आप में अन्यायपूर्ण व्यवहार नहीं माना जाएगा, जब तक उससे शेयरहोल्डरों के अधिकार या कंपनी के हितों पर बुरा असर न पड़े।
  • महत्त्व: इससे यह तय हुआ कि NCLT (नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल) कंपनी के सामान्य बिज़नेस फैसलों में ज़रूरत से ज़्यादा हस्तक्षेप नहीं कर सकता।

वोडाफोन इंटरनेशनल होल्डिंग्स बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2012)

  • फैसला: सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर कोई विदेशी कंपनी अप्रत्यक्ष रूप से भारत में किसी कंपनी के शेयर ट्रांसफर करती है, तो उस पर भारतीय टैक्स कानून लागू हो सकते हैं।
  • महत्त्व: इस केस ने दिखाया कि फॉरेन इन्वेस्टमेंट करते समय ड्यू डिलिजेंस और टैक्स कंप्लायंस बहुत ज़रूरी है।

शेयरहोल्डर डिस्प्यूट्स में मीडिएशन और सेटलमेंट की भूमिका

कोर्ट या अरबिट्रेशन में जाने से पहले कई भारतीय और विदेशी साझेदार मीडिएशन का रास्ता अपनाते हैं।

फायदे:

  • जल्दी और शांतिपूर्ण समाधान मिलता है,
  • व्यापारिक रिश्ते बने रहते हैं,
  • खर्च कम और प्रक्रिया गोपनीय रहती है,
  • दोनों पक्ष मिलकर समाधान तय कर सकते हैं।

कानूनी मान्यता: मीडिएशन को कमर्शियल कोर्ट एक्ट, 2015 और मीडिएशन एक्ट, 2023 में मान्यता दी गई है। अगर मीडिएशन में लिखित समझौता हो जाता है, तो वह कोर्ट के आदेश जितना ही वैध माना जाता है।

भविष्य के इन डिस्प्यूट्स से बचने के तरीके:

  • मजबूत शेयरहोल्डर एग्रीमेंट (SHA) बनाएं: सभी शर्तें साफ-साफ लिखें — जैसे डिस्प्यूट सुलझाने का तरीका, शेयर बेचने के अधिकार और शेयर की वैल्यू तय करने के नियम।
  • पारदर्शिता बनाए रखें: सभी पार्टनर्स को कंपनी की वित्तीय रिपोर्ट और ज़रूरी जानकारी समय-समय पर दें।
  • FEMA और FDI नियमों का पालन करें: सभी विदेशी निवेश RBI और FEMA के नियमों के अनुसार करें।
  • एग्रीमेंट की समय-समय पर समीक्षा करें: कानून या व्यापार की स्थिति बदलने पर एग्रीमेंट अपडेट करें।
  • न्यूट्रल जगह पर आर्बिट्रेशन रखें: सिंगापुर, लंदन या मुंबई इंटरनेशनल आर्बिट्रेशन सेंटर जैसी निष्पक्ष जगह चुनें।
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भारत आज भी विदेशी व्यापारिक साझेदारों के लिए एक बड़ा आकर्षण है। लेकिन साझेदारी में भरोसा तभी बनता है जब दोनों पक्ष ईमानदारी, पारदर्शिता और कानूनी नियमों का पालन करें।

विदेशी पार्टनर को भारतीय कानून समझने चाहिए और भारतीय पार्टनर को अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक मानकों का सम्मान करना चाहिए। डिस्प्यूट होना स्वाभाविक है, लेकिन सही एग्रीमेंट, आर्बिट्रेशन और आपसी समझ से इन्हें हल किया जा सकता है।

 कोर्ट केस और आर्बिट्रेशन में अंतर (कौन-सा तरीका बेहतर है?)

बिंदुआर्बिट्रेशनकोर्ट
समयआमतौर पर 6 से 12 महीने में मामला निपट जाता है।कोर्ट में केस कई सालों तक चल सकता है।
गोपनीयतापूरा मामला निजी रहता है, सार्वजनिक रिकॉर्ड में नहीं जाता।कोर्ट की कार्यवाही सार्वजनिक होती है, जिससे गोपनीयता कम रहती है।
खर्चखर्च थोड़ा कम  होता है क्योंकि प्रक्रिया तेज़ होती है।लंबी प्रक्रिया और वकीलों की फीस के कारण खर्च ज़्यादा होता है।
लागू करने की क्षमताविदेशी देशों में भी आर्बिट्रेशन का फैसला मान्य होता है।कोर्ट का आदेश आमतौर पर सिर्फ भारत में ही लागू होता है।

निष्कर्ष

शेयरहोल्डर डिस्प्यूट का मतलब व्यापार खत्म होना नहीं है। अगर सही तरीके से कानूनी प्रक्रिया अपनाई जाए, तो डिस्प्यूट एक मौका बन सकता है, एक दूसरे को समझने, समझौता करने और भरोसा फिर से बनाने का। भारतीय कानून में NCLT, आर्बिट्रेशन और मेडिएशन जैसे कई भरोसेमंद तरीके मौजूद हैं जो निष्पक्ष और पारदर्शी समाधान देते हैं। सच्चा न्याय टकराव से नहीं, बल्कि समझदारी, नियमों के पालन और सहयोग से मिलता है।

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FAQs

1. क्या विदेशी पार्टनर भारत में केस दायर कर सकता है?

हाँ, कंपनी एक्ट, 2013 और आर्बिट्रेशन एक्ट, 1996 के तहत विदेशी पार्टनर NCLT या आर्बिट्रेशन के ज़रिए केस कर सकता है।

2. अगर एग्रीमेंट में विदेशी आर्बिट्रेशन लिखा है तो क्या होगा?

डिस्प्यूट उसी जगह सुलझाया जाएगा जो एग्रीमेंट में तय है, जैसे सिंगापुर या लंदन। भारतीय अदालतें ऐसे विदेशी आर्बिट्रेशन आदेशों को मान्यता देती हैं।

3. क्या विदेशी माइनॉरिटी शेयरहोल्डर खुद की सुरक्षा कर सकता है?

हाँ, वह कंपनी एक्ट की धारा 241–242 के तहत “अन्यायपूर्ण व्यवहार” या “गलत प्रबंधन” के लिए NCLT में याचिका दायर कर सकता है।

4. क्या विदेशी आर्बिट्रेशन आदेश भारत में मान्य हैं?

हाँ, अगर वह देश न्यूयॉर्क कन्वेंशन में शामिल है, तो भारत ऐसे आदेशों को मान्यता और लागू करता है।

5. विदेशी साझेदारी में डिस्प्यूट से कैसे बचा जा सकता है?

शुरू से ही साफ और मजबूत एग्रीमेंट बनाएं, नियमों का पालन करें, और एक निष्पक्ष आर्बिट्रेशन क्लॉज रखें ताकि भविष्य में डिस्प्यूट न बढ़े।

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