वित्तीय लेन-देन कभी-कभी मामूली झगड़े को बड़े कानूनी विवाद में बदल सकते हैं। खासकर चेक बाउंस के मामले में, लोग अक्सर नोटिस, समय सीमा और कानूनी विकल्पों को लेकर भ्रमित हो जाते हैं। कई लोग सोचते हैं कि अगर समय सीमा छूट गई, तो उनका अधिकार खत्म हो गया।
लेकिन कानून केवल समय सीमा लागू करने के लिए नहीं है, बल्कि सच्चे दावों की सुरक्षा के लिए भी है। अदालतें अक्सर यह देखती हैं कि क्या देरी उचित थी, नोटिस सही तरीके से भेजा गया था या पार्टियाँ वास्तविक बातचीत में लगी थीं। यह समझना जरूरी है कि लिमिटेशन पीरियड और कानूनी उपाय कैसे आपके वित्तीय अधिकारों को प्रभावित करते हैं।
इस ब्लॉग में हम बताएंगे कि चेक बाउंस होने पर आपको क्या कदम उठाने चाहिए, कौन-कौन से कानूनी प्रावधान मदद कर सकते हैं, और सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में क्या दिशा-निर्देश दिए हैं। इससे आप अपने अधिकारों की रक्षा समय पर कर सकते हैं और अनावश्यक परेशानी से बच सकते हैं।
लिमिटेशन पीरियड क्या है और यह क्यों जरूरी है?
लिमिटेशन पीरियड का मतलब है वह अधिकतम समय, जिसे कानून ने तय किया है, ताकि कोई व्यक्ति कोर्ट में अपना केस दाखिल कर सके। यानी, अगर इस समय सीमा के भीतर केस नहीं किया गया, तो कोर्ट शिकायत को मानने से इंकार कर सकती है।
सिविल बनाम क्रिमिनल केस: चेक बाउंस के मामले में नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट एक्ट, 1881 की धारा 138 के तहत क्रिमिनल अपराध माने जाते हैं। इसलिए, केवल यह जानना जरूरी नहीं कि चेक बाउंस हुआ है, बल्कि यह भी देखना जरूरी है कि शिकायत सही समय पर दर्ज की गई है या नहीं। समय पर शिकायत दर्ज न होने पर कोर्ट केस खारिज कर सकती है।
समय सीमा: जब चेक बाउंस होता है और नोटिस दिया जाता है, उसके 30 दिन के भीतर शिकायत दर्ज करनी होती है। यह समय सीमा NI एक्ट, 1881 की धारा 138(1) में स्पष्ट रूप से दी गई है।
उद्देश्य:
- यह सुनिश्चित करता है कि मामले समय पर सुलझें और पुराने विवाद लंबित न रहें।
- आरोपी व्यक्ति को अन्यायपूर्ण देर से केस के खतरे से बचाता है।
- दोनों पक्षों को स्पष्टता और निष्पक्षता प्रदान करता है।
इस लिमिटेशन पीरियड को समझना इसलिए जरूरी है, ताकि आप सही समय पर केस करें और कोर्ट द्वारा रिजेक्शन का खतरा न हो। यह आपके वित्तीय और कानूनी अधिकारों की सुरक्षा के लिए पहला और महत्वपूर्ण कदम है।
चेक बाउंस के लिए कानूनी प्रावधान – NI एक्ट, 1881 की धारा 138
धारा 138 के तहत चेक बाउंस होने के मामलों को संभाला जाता है। इसे समझना इसलिए जरूरी है ताकि आप अपने अधिकार और कानूनी कदम आसानी से समझ सकें।
1. लोन या देनदारी के लिए दिया गया चेक: यह धारा केवल उस स्थिति में लागू होता है जब चेक किसी पैसे की देनदारी या उधार के भुगतान के लिए जारी किया गया हो। यदि चेक किसी अन्य उद्देश्य के लिए है, तो यह धारा लागू नहीं होगी।
2. अपर्याप्त बैलेंस या खाते में फंड न होने पर: अगर चेक का भुगतान करने के लिए खाते में पर्याप्त राशि नहीं है या बैंक ने कोई लिमिट तय की है और उससे अधिक निकासी की गई है, तो चेक बाउंस माना जाएगा।
3. नोटिस जारी करने की आवश्यकता: चेक बाउंस होने के बाद पैसे पाने वाले (पेयी) को 30 दिन के अंदर लिखित नोटिस देना जरूरी है। इस नोटिस में पैसे की मांग साफ तौर पर लिखी होनी चाहिए।
4. शिकायत दर्ज करना: अगर चेक जारी करने वाला (drawer) 15 दिन के अंदर नोटिस का भुगतान नहीं करता, तो पेयी क्रिमिनल शिकायत कोर्ट में दर्ज करा सकता है।
5. सजा या जुर्माना: अगर अदालत दोषी पाती है, तो चेक जारी करने वाले को 2 साल तक जेल या चेक की राशि के दोगुने तक जुर्माना या दोनों का सामना करना पड़ सकता है।
उद्देश्य:
- यह कानून पेयी के अधिकार की सुरक्षा करता है, ताकि उनका पैसा वसूल हो सके।
- साथ ही, चेक जारी करने वाले को झूठे दावे से बचाता है।
यह प्रावधान इसलिए बनाए गए हैं ताकि दोनों पक्षों के अधिकार सुरक्षित रहें और चेक बाउंस मामले में स्पष्ट और न्यायपूर्ण कार्रवाई हो सके।
महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय
साकेत इंडिया लिमिटेड बनाम इंडिया सिक्योरिटीज लिमिटेड (1999)
तथ्य
- यह मामला चेक बाउंस से जुड़ा था, जिसमें सवाल था कि शिकायत समय सीमा के अंदर दायर हुई या नहीं।
- कानून के अनुसार, नोटिस भेजने के बाद अगर 15 दिनों में भुगतान नहीं होता, तो शिकायत एक महीने के अंदर दर्ज करनी होती है।
- विवाद इस बात पर था कि एक महीने की गिनती कब से शुरू होगी, क्या भुगतान न होने वाले दिन को गिनती में जोड़ा जाए या नहीं।
मुख्य कानूनी सवाल
क्या जिस दिन से मामला शुरू होता है, उस दिन को एक महीने की समय सीमा गिनते समय शामिल किया जाए या नहीं?
सुप्रीम कोर्ट का फैसला
- पहले दिन को न गिनने का नियम: कोर्ट ने कहा कि जिस दिन “कार्रवाई का कारण” (cause of action) शुरू होता है, उसे गिनती में शामिल नहीं किया जाएगा। अगले दिन से एक महीने की अवधि मानी जाएगी।
- शिकायतकर्ता को फायदा: इससे शिकायत दर्ज करने के लिए पूरा एक महीना मिलता है, कोई दिन कम नहीं होता।
- कानूनी आधार: कोर्ट ने जनरल क्लॉज़ एक्ट, 1897 की धारा 9 का हवाला दिया, जिसमें कहा गया है कि समय सीमा गिनते समय प्रारंभिक दिन को छोड़ा जाता है।
- अंतिम निर्णय: शिकायत समय सीमा के भीतर दायर की गई थी, इसलिए वैध मानी गई।
लक्ष्मी चंद गोयल बनाम गजानंद बुरंगे (2018)
तथ्य: लक्ष्मी चंद गोयल बनाम गजानंद बुरंगे (2018) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि चेक बाउंस मामलों में नोटिस प्राप्ति के 15 दिन से पहले शिकायत दर्ज करना अवैध है। समय सीमा का पालन अनिवार्य है, लेकिन देरी होने पर उचित कारण प्रस्तुत करके नई शिकायत दर्ज की जा सकती है। यह निर्णय समय पर कानूनी कार्रवाई के महत्व को रेखांकित करता है।
मुद्दा: मुख्य कानूनी प्रश्न यह था कि क्या चेक बाउंस के मामले में, नोटिस प्राप्ति के 15 दिन पहले शिकायत दर्ज करना वैध है या नहीं?
निर्णय: सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में निम्नलिखित निर्णय दिए:
- 15 दिन की अवधि का पालन: कोर्ट ने स्पष्ट किया कि नोटिस प्राप्ति के 15 दिन पहले शिकायत दर्ज करना कानूनन मान्य नहीं है। इस अवधि का उल्लंघन करने से शिकायत अमान्य हो जाती है।
- नया शिकायत दर्ज करने की अनुमति: क्योकि प्रारंभिक शिकायत समय सीमा के भीतर नहीं थी, कोर्ट ने गोयल को निर्देशित किया कि वह एक नई शिकायत दर्ज करें और यदि आवश्यक हो, तो देरी के लिए उचित कारण प्रस्तुत करें।
प्रभाव: यह निर्णय चेक बाउंस के मामलों में समय सीमा के महत्व को रेखांकित करता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि शिकायत दर्ज करने से पहले नोटिस प्राप्ति के 15 दिन की अवधि का पालन करना आवश्यक है। इस निर्णय ने यह भी सुनिश्चित किया कि यदि प्रारंभिक शिकायत समय सीमा का उल्लंघन करती है, तो शिकायतकर्ता को एक नई शिकायत दर्ज करने का अवसर मिलेगा, बशर्ते वह देरी के लिए उचित कारण प्रस्तुत करें।
के. हेमावती बनाम राज्य (आंध्र प्रदेश), 2023
तथ्य
- शिकायतकर्ता ने धारा 138 NI एक्ट के तहत चेक बाउंस का मामला दर्ज किया, जबकि आरोपी के. हेमावती ने कहा कि चेक का लोन समय-सीमा समाप्त (Limitation Act) हो चुका था।
- हाई कोर्ट में आरोपी की याचिका खारिज कर दी गई, निचली अदालत ने मामला आगे बढ़ाया।
- मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुँचा, जहाँ इस विवाद का अंतिम निपटारा किया जाना था।
सुप्रीम कोर्ट के सामने मुख्य सवाल यह था: क्या यह लोन या देनदारी समय-सीमा (Limitation) पूरी होने के कारण लागू नहीं होती और इसलिए धारा 138 NI एक्ट के तहत कार्रवाई नहीं की जा सकती, या इसे मामले की सुनवाई और सबूतों की जांच के बाद तय किया जाना चाहिए?
सुप्रीम कोर्ट की मुख्य बातें
- कानूनी लोन का अनुमान: हर चेक को कानूनी रूप से लागू लोन या देनदारी के लिए जारी माना जाता है। आरोपी को इसका खंडन करने के लिए सबूत पेश करना होगा।
- समय-सीमा पूरी होने वाला लोन: यह तय करना कि लोन समय-सीमा पूरी होने के कारण लागू नहीं है, केवल शिकायत देखकर नहीं हो सकता। इसे ट्रायल में सबूतों के आधार पर ही निर्णय किया जा सकता है।
- शिकायत रद्द करना सही नहीं: प्रारंभिक स्तर पर केस रद्द करना उचित नहीं, क्योंकि लिमिटेशन का मामला सबूतों पर निर्भर करता है।
- अंतिम निर्णय: सुप्रीम कोर्ट ने अपील खारिज की और कहा कि लोन समय-सीमा पूरी होने के कारण लागू है या नहीं, यह केवल ट्रायल में सबूतों की जांच के बाद तय किया जा सकता है।
लिमिटेशन पीरियड खत्म होने पर क्या अब भी न्याय मिल सकता है?
- सख्त समय सीमा: चेक बाउंस का केस नोटिस देने के 30 दिनों के भीतर दर्ज करना जरूरी है। अगर देर हो जाती है, तो कोर्ट केस खारिज कर सकती है।
- देरी माफ (Condonation of Delay): अगर देरी किसी वाजिब वजह (जैसे बीमारी, डाक में देरी, या गलती से हुई चूक) से हुई है, तो कोर्ट लिमिटेशन एक्ट, 1963 की धारा 5 के तहत देरी माफ कर सकती है।
- सिविल उपाय: अगर आपराधिक केस देर से दायर हुआ है, तो भी आप सिविल कोर्ट में जाकर पैसा वसूलने के लिए मुकदमा कर सकते हैं।
- सुप्रीम कोर्ट का नजरिया: कोर्ट केवल तारीखों पर नहीं, बल्कि वास्तविक न्याय पर ध्यान देती है। अगर थोड़ी सी देरी हुई है और कारण सही है, तो केस पर विचार हो
- मुख्य बात: लिमिटेशन खत्म होने के बाद केस मुश्किल तो है, लेकिन आपके पास सिविल केस और देरी माफी का विकल्प हमेशा रहता है।
क्या कुछ हालात में लिमिटेशन पीरियड के बाद भी केस दर्ज किया जा सकता है?
कई बार चेक बाउंस के मामलों में देरी गलती या परिस्थिति के कारण होती है। ऐसे हालात में अदालत सख्त समय सीमा से थोड़ा लचीलापन दिखा सकती है।
- डाक या डिलीवरी में देरी: अगर नोटिस या चेक गलत पते पर गया या देर से पहुँचा, तो अदालत शिकायत दर्ज करने की अनुमति दे सकती है।
- लिमिटेशन की जानकारी न होना: कभी-कभी व्यक्ति को कानूनी समय सीमा की जानकारी नहीं होती, ऐसे मामलों में अदालत सहानुभूति दिखा सकती है।
- समझौते की बातचीत जारी रहना: अगर दोनों पक्षों के बीच समझौते की कोशिश चल रही थी, तो देरी को माफ किया जा सकता है।
- आंशिक भुगतान किया गया हो: अगर आरोपी ने कुछ पैसा चुका दिया है, तो अदालत इसे जारी देनदारी मान सकती है और केस की अनुमति दे सकती है।
इन अपवादों से साफ है कि अदालतें केवल तारीखों पर नहीं, बल्कि परिस्थितियों और न्याय पर भी ध्यान देती हैं।
निष्कर्ष
चेक बाउंस के मामले तनावपूर्ण हो सकते हैं, लेकिन अगर आप कानूनी समयसीमा, सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देश और उपलब्ध उपायों को समझते हैं, तो आपको आत्मविश्वास मिलता है। लिमिटेशन पीरियड सख्त हैं, लेकिन कोर्ट वास्तविक परिस्थितियों और उचित देरी को ध्यान में रखती है। अगर आप क्रिमिनल केस दाखिल नहीं कर पाते, तो भी सिविल रास्ते से पैसे वसूल सकते हैं।
महत्वपूर्ण है कि आप तुरंत कार्रवाई करें, सभी दस्तावेज़ संभालकर रखें, और अनुभवी वकील से सलाह लें। अपने अधिकारों की जानकारी आज रखने से आप भविष्य में वित्तीय नुकसान और कानूनी परेशानियों से बच सकते हैं।
किसी भी कानूनी सहायता के लिए लीड इंडिया से संपर्क करें। हमारे पास लीगल एक्सपर्ट की पूरी टीम है, जो आपकी हर संभव सहायता करेगी।
FAQs
1. NI एक्ट की धारा 138 के तहत चेक बाउंस केस दर्ज करने की लिमिटेशन पीरियड कितनी है?
डिमांड नोटिस भेजने के 30 दिनों के अंदर शिकायत दर्ज करनी होती है।
2. क्या लिमिटेशन पीरियड के बाद भी चेक बाउंस केस किया जा सकता है?
आमतौर पर नहीं, लेकिन कोर्ट उचित कारणों से थोड़ी देरी को स्वीकार कर सकती है या सिविल क्लेम के लिए रास्ता खुला रख सकती है।
3. अगर 30 दिन का नोटिस पीरियड मिस हो जाए तो क्या होगा?
क्रिमिनल शिकायत रद्द हो सकती है, लेकिन आप सिविल तरीके से पैसे वसूल सकते हैं।
4. क्या सुप्रीम कोर्ट की रूलिंग लिमिटेशन पीरियड बढ़ा सकती है?
नहीं, SC लिमिटेशन अनिश्चित रूप से नहीं बढ़ा सकती, लेकिन कुछ विशेष मामलों में न्यायिक विवेक से थोड़ी देरी मान्य हो सकती है।
5. NI एक्ट की धारा 138 के तहत शिकायत दर्ज करने के लिए कौन-कौन से दस्तावेज़ चाहिए?
चेक की कॉपी, बैंक रिटर्न मेमो, डिमांड नोटिस, डिलीवरी का प्रमाण और ड्रॉअर के साथ हुई सभी बातचीत।



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