क्या सुप्रीम कोर्ट से फांसी की सज़ा में राहत मिल सकती है? जानिए प्रक्रिया और महत्वपूर्ण निर्णय

Can the Supreme Court grant relief from death penalty Know the process and important decisions

भारत में मौत की सज़ा सबसे कड़ी सज़ा मानी जाती है। यह सिर्फ़ “रेयरेस्ट ऑफ़ रेयर” यानी बेहद गंभीर और दुर्लभ अपराधों में दी जाती है। ट्रायल कोर्ट और हाई कोर्ट से सज़ा तय होने के बाद भी, सुप्रीम कोर्ट के पास इसे बदलने या राहत देने का अधिकार होता है।

सुप्रीम कोर्ट आख़िरी सुरक्षा कवच की तरह काम करता है ताकि कोई निर्दोष व्यक्ति गलती से फाँसी पर न चढ़ जाए। सालों से सुप्रीम कोर्ट ने कई अहम फैसलों और सिद्धांतों के ज़रिए यह तय किया है कि:

  • कब मौत की सज़ा बरकरार रखी जाए,
  • उसे उम्रकैद में बदला जाए,
  • सज़ा को कम करके राहत दी जाए,
  • या बहुत ही दुर्लभ मामलों में दोषी को पूरी तरह रिहा कर दिया जाए।

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फांसी की सज़ा के कानूनी प्रावधान क्या है?

भारतीय न्याय संहिता (BNS 2023) में साफ लिखा है कि कुछ विशेष अपराधों के लिए फाँसी की सज़ा दी जा सकती है। यह प्रावधान सिर्फ़ उन मामलों के लिए है, जहाँ अपराध इतना गंभीर हो कि समाज और न्याय व्यवस्था के लिए “रेयरेस्ट ऑफ़ रेयर” श्रेणी में आता हो।

किन अपराधों में फाँसी की सज़ा दी जा सकती है?

  • हत्या: खासकर बर्बर, योजनाबद्ध या कई लोगों की हत्या के मामलों में।
  • बलात्कार: विशेषकर जब अपराध नाबालिग बच्ची के साथ किया गया हो, या बलात्कार के बाद हत्या कर दी गई हो।
  • आतंकवाद: जब आतंकवादी घटनाओं से देश की सुरक्षा और बड़ी संख्या में निर्दोष लोगों की जान को खतरा हो।
  • राजद्रोह और राष्ट्रविरोधी गतिविधियाँ अगर कोई व्यक्ति देश की सुरक्षा, संप्रभुता और अखंडता को खतरे में डालता है।

सुप्रीम कोर्ट से फांसी की सज़ा में राहत कैसे मिल सकती है?

अगर सेशन कोर्ट किसी आरोपी को फाँसी की सज़ा सुनाता है, तो यह सज़ा तुरंत लागू नहीं की जा सकती। इसे पहले हाई कोर्ट की पुष्टि (Confirmation) ज़रूरी होती है।

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS 2023) की धारा 407 के अनुसार, सेशन कोर्ट का दिया हुआ फाँसी का फैसला अपने आप लागू नहीं होता। हाई कोर्ट इस फैसले की जाँच करता है और तभी यह सज़ा आगे बढ़ाई जा सकती है।

अगर हाई कोर्ट फाँसी की सज़ा को मंज़ूरी देता है, तो आरोपी के पास सुप्रीम कोर्ट में अपील करने का पूरा अधिकार होता है। यानी हाई कोर्ट का फैसला अंतिम नहीं है, सुप्रीम कोर्ट उस पर दोबारा विचार कर सकता है।

1. अपील (BNSS की धारा 415)

अगर ट्रायल कोर्ट और हाई कोर्ट ने फाँसी की सज़ा दी है, तो दोषी सीधे सुप्रीम कोर्ट में अपील कर सकता है। यहाँ पूरी सज़ा की दोबारा जाँच होती है।

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2. स्पेशल लीव पिटीशन (SLP) (भारतीय संविधान का अनुच्छेद 136)

अगर किसी मामले में सामान्य अपील का प्रावधान न हो, तो दोषी सुप्रीम कोर्ट से SLP की अनुमति माँग सकता है।

3. रीव्यू पिटीशन (भारतीय संविधान का अनुच्छेद 137)

अगर सुप्रीम कोर्ट ने भी फाँसी की सज़ा बरकरार रखी हो, तो दोषी सुप्रीम कोर्ट से अपने ही फैसले पर पुनर्विचार करने की गुज़ारिश कर सकता है। यह “रीव्यू” कहलाता है।

4. क्यूरेटिव पिटीशन

अगर रीव्यू पिटीशन भी खारिज हो जाए, तो दोषी के पास अंतिम रास्ता “क्यूरेटिव पिटीशन” होता है। इसमें सुप्रीम कोर्ट से अपील की जाती है कि कहीं न्याय में गंभीर चूक न हुई हो।

5. भारतीय संविधान का अनुच्छेद 142

सुप्रीम कोर्ट के पास विशेष शक्ति है कि वह “पूरा न्याय” (Complete Justice) करने के लिए कोई भी आदेश दे सकता है। इसी अधिकार से कोर्ट फाँसी की सज़ा को उम्रकैद में बदल सकता है या और राहत दे सकता है।

फांसी की सज़ा में मर्सी पिटीशन और राष्ट्रपति की भूमिका

मर्सी पिटीशन एक ऐसा आवेदन होता है जिसे दोषी व्यक्ति राष्ट्रपति या राज्यपाल के सामने पेश करता है। इसमें वह अपनी सज़ा कम करने, माफ़ करने या बदलने की गुज़ारिश करता है। यह ज़्यादातर उन मामलों में दायर की जाती है जहाँ किसी को फाँसी की सज़ा या बहुत लंबी कैद सुनाई गई हो।

यह पिटीशन तब लगाई जाती है जब सभी अदालतों से अपील करने के बाद भी दोषी को राहत नहीं मिलती। मर्सी पिटीशन आख़िरी क़ानूनी सहारा होती है, जहाँ मानवीय आधारों पर और न्याय में हुई संभावित ग़लतियों पर विचार किया जाता है। यह पूरी तरह इंसानियत और दया का कदम माना जाता है।

संवैधानिक प्रावधान:

अनुच्छेद 72 – राष्ट्रपति की शक्ति
  • राष्ट्रपति को यह अधिकार है कि वे फाँसी की सज़ा पाए हुए व्यक्ति की सज़ा को माफ़, घटा, टाल, या बदल सकते हैं।
  • यह शक्ति सभी अपराधों में लागू होती है – चाहे वे केंद्रीय कानून के तहत हों, सैन्य कानून के हों, या फाँसी की सज़ा हो।
अनुच्छेद 161 – राज्यपाल की शक्ति
  • राज्यपाल को भी यह शक्ति दी गई है, लेकिन यह केवल राज्य स्तर के अपराधों तक सीमित है।
  • यानी, अगर अपराध राज्य के कानून से जुड़ा है, तो राज्यपाल सज़ा कम कर सकते हैं या राहत दे सकते हैं।

सुप्रीम कोर्ट सीधे मर्सी पिटीशन का निर्णय नहीं लेता, लेकिन अगर इस प्रक्रिया में:

  • अनुचित देरी हो,
  • पक्षपात या भेदभाव दिखे,
  • या कानूनी प्रक्रिया का सही पालन न हुआ हो,

तो सुप्रीम कोर्ट हस्तक्षेप कर सकता है और यह देख सकता है कि न्याय सही तरीके से हुआ है या नहीं।

सुप्रीम कोर्ट ने फांसी की सज़ा को लेकर कुछ अहम सिद्धांत बनाए हैं

  • “रेयरेस्ट ऑफ रेयर” सिद्धांत – फांसी की सज़ा केवल उन्हीं मामलों में दी जाएगी जहाँ आजीवन कारावास भी पर्याप्त न हो।
  • व्यक्तिगत परिस्थितियाँ – कोर्ट आरोपी की पृष्ठभूमि, उम्र, मानसिक स्थिति और सुधार की संभावना पर भी ध्यान देता है।
  • देरी पर राहत – अगर दया पिटीशन या किसी और वजह से फांसी की सज़ा लागू होने में बहुत देरी हो, तो सज़ा को उम्रकैद में बदला जा सकता है।
  • मानवीय गरिमा – दोषी को आख़िरी पल तक उचित प्रक्रिया और इज़्ज़त के साथ जीने का अधिकार है।
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फांसी की सज़ा से राहत पर सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले

1. बचन सिंह बनाम पंजाब राज्य (1980)

यह भारत में फांसी की सज़ा से जुड़ा सबसे मशहूर केस है। सुप्रीम कोर्ट ने माना कि फांसी की सज़ा संविधान के खिलाफ नहीं है, लेकिन इसे सिर्फ़ “रेयरेस्ट ऑफ रेयर” यानी बेहद गंभीर और दुर्लभ मामलों में ही दिया जाना चाहिए। यही सिद्धांत आज भी हर फांसी के मामले में अपनाया जाता है।

2. त्रिवेणीबेन बनाम गुजरात राज्य (1989)

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर फांसी की सज़ा को लागू करने में बहुत लंबी देरी हो जाती है, तो यह सज़ा घटाकर उम्रकैद में बदली जा सकती है। कोर्ट ने कैदियों के साथ इंसानियत और मानवीय व्यवहार की ज़रूरत पर ज़ोर दिया।

3. शत्रुघ्न चौहान बनाम भारत संघ (2014)

इस केस में सुप्रीम कोर्ट ने मर्सी पिटीशन पर विस्तार से नियम बनाए। कोर्ट ने कहा कि यदि कैदी को लंबे समय तक एकांतवास में रखा जाए, मानसिक बीमारी हो, या प्रक्रिया में गलती हो, तो फांसी की सज़ा घटाकर उम्रकैद दी जा सकती है।

4. मो. आरिफ @ अशफाक बनाम भारत का सर्वोच्च न्यायालय (2014)

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि फांसी की सज़ा वाले मामलों में रिव्यू पिटीशन की सुनवाई खुली अदालत में ही होनी चाहिए। इससे प्रक्रिया पारदर्शी और निष्पक्ष बनती है।

भारत में फांसी की सज़ा के ऐतिहासिक मामले

शबनम बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2020)

  • मामला: शबनम ने अपने परिवार के सात सदस्यों की निर्मम हत्या की।
  • निर्णय: उसकी मर्सी पिटीशन खारिज कर दी गई और सुप्रीम कोर्ट ने फांसी की सजा की पुष्टि कर दी।
  • प्रभाव: इस फैसले ने दोबारा स्पष्ट किया कि बेहद गंभीर अपराधों में, जहाँ सुधार की कोई संभावना नहीं होती, फांसी “सबसे दुर्लभ मामलों” में दी जा सकती है।

निर्भया मामला (मुकेश और अन्य) (2017)

  • मामला: दिल्ली में एक युवती के साथ गैंगरेप और हत्या का भयानक अपराध।
  • निर्णय: सुप्रीम कोर्ट ने चार वयस्क दोषियों के लिए फांसी की सज़ा पुष्टि की।
  • प्रभाव: इस फैसले ने दिखाया कि समाज इस तरह के क्रूर यौन अपराधों पर आक्रोश है और अदालत ने इसे दंडित करके यही संदेश दिया।
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अजमल कसाब (2012)

  • मामला: अजमल कसाब, जो 26/11 मुंबई आतंकी हमलों में शामिल था।
  • फैसला: उसे फांसी की सज़ा सुनाई गई और कार्रवाई कर दी गई।
  • प्रभाव: इस फैसले ने दिखाया कि आतंकवाद और देश की सुरक्षा से जुड़े अपराधों के लिए सख्त सज़ा दी जाएगी।

सुप्रीम कोर्ट: न्याय और सुधार में संतुलन

  • कोर्ट हमेशा कहती है कि सज़ा का मकसद सिर्फ़ बदला लेना नहीं, बल्कि सुधार भी है।
  • कुछ मामलों में, जैसे निर्भया कांड (2017), कोर्ट ने समाज की भावना दिखाने के लिए फांसी की सज़ा को सही ठहराया।
  • कुछ मामलों में, कोर्ट ने फांसी को उम्रकैद में बदल दिया, जब आरोपी की उम्र कम थी, उसका कोई आपराधिक इतिहास नहीं था, या सुधार की संभावना थी।
  • इस तरह, कोर्ट पीड़ितों के लिए न्याय और दोषियों के अधिकारों के बीच संतुलन बनाती है।

निष्कर्ष

सुप्रीम कोर्ट फांसी की सज़ा में राहत के मामले में अंतिम और महत्वपूर्ण सुरक्षा कवच है। यह सिर्फ अपराधियों को सज़ा देने तक सीमित नहीं है, बल्कि न्याय की पूरी प्रक्रिया में इंसानियत और संतुलन बनाए रखती है। “Rarest of rare” सिद्धांत, देरी, मानसिक स्थिति और सुधार की संभावना को ध्यान में रखते हुए, कोर्ट यह सुनिश्चित करती है कि कोई भी निर्णय जल्दबाज़ी में या अधूरी जानकारी पर न लिया जाए। यही कारण है कि भारत में मौत की सज़ा केवल असाधारण मामलों में ही दी जाती है, और हर कदम पर न्याय, मानवीय दृष्टिकोण और संतुलित फैसला संभव हो सके। इस तरह, सुप्रीम कोर्ट न केवल अपराध पर नियंत्रण रखती है बल्कि समाज में न्याय और भरोसे की भावना भी मजबूत करती है।

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FAQs

1. क्या सुप्रीम कोर्ट फांसी की सज़ा को आजीवन कारावास में बदल सकता है?

हाँ, सुप्रीम कोर्ट केवल अत्यंत जघन्य अपराधों और कैदी की परिस्थितियों को देखकर फांसी को आजीवन कारावास में बदल सकता है।

2. मर्सी पिटीशन दायर करने की प्रक्रिया क्या है?

कैदी या उसका परिवार राष्ट्रपति या राज्यपाल को लिखित आवेदन देकर दंड में रियायत मांगने के लिए पिटीशन दायर कर सकता है।

3. क्या फांसी में देर होने पर सज़ा बदल सकती है?

हाँ, अगर फांसी में बहुत विलंब हुआ है तो सुप्रीम कोर्ट इसे मानव अधिकारों के आधार पर आजीवन कारावास में बदल सकता है।

4. क्या मानसिक रूप से अस्वस्थ कैदी को फांसी दी जा सकती है?

नहीं, सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि मानसिक रूप से बीमार कैदी को फांसी देना संविधान के खिलाफ है।

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