आपसी सहमति से तलाक कैसे लिया जाता है?

How to get a divorce by mutual consent

विवाह केवल सामाजिक और धार्मिक बंधन ही नहीं बल्कि एक कानूनी अनुबंध भी है। जैसे विवाह के लिए दोनों पक्षों की सहमति आवश्यक होती है, वैसे ही यदि वैवाहिक जीवन में मतभेद इतने गहरे हो जाएं कि दोनों पक्ष एक-दूसरे के साथ रहने को तैयार न हों, तो कानून ने उन्हें आपसी सहमति से वैवाहिक संबंध समाप्त करने का अधिकार भी दिया है। भारत के कानून में आपसी सहमति से तलाक का प्रावधान कई धार्मिक और वैवाहिक कानूनों में किया गया है। इस लेख में हम विस्तार से समझेंगे कि भारत में आपसी सहमति से तलाक लेने की प्रक्रिया, नियम, दस्तावेज और कानूनी अधिकार क्या हैं।

आपसी सहमति से तलाक क्या है?

आपसी सहमति से तलाक (Mutual Consent Divorce) वह प्रक्रिया है जिसमें पति और पत्नी दोनों इस बात पर सहमत होते हैं कि वे अब साथ नहीं रह सकते और वैवाहिक संबंध समाप्त करना चाहते हैं। यह तलाक का सबसे सरल, कम समय लेने वाला और विवाद रहित तरीका माना जाता है, जिसमें अदालत केवल औपचारिकता और दस्तावेजों की जांच करती है।

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भारत में आपसी सहमति से तलाक के लिए कानूनी प्रावधान

भारत में विभिन्न धर्मों के अनुसार अलग-अलग विवाह और तलाक कानून हैं:

हिंदू, बौद्ध, सिख और जैन धर्म

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13 बी में आपसी सहमति से तलाक का प्रावधान जोड़ा गया है।

मुस्लिम धर्म

  • मुस्लिम पुरुष के लिए Talaq (तलाक) का प्रावधान है।
  • मुस्लिम महिलाओं के लिए मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम, 1939 के अंतर्गत राहत उपलब्ध है।
  • Muslim Personal Law (Shariat) Application Act, 1937 भी लागू होता है।

ईसाई धर्म

भारतीय ईसाई विवाह अधिनियम, 1872 और भारतीय ईसाई विवाह और तलाक अधिनियम, 1869 के अंतर्गत ईसाई पति-पत्नी तलाक ले सकते हैं।

पारसी धर्म

पारसी विवाह और तलाक अधिनियम, 1936 में पारसी जोड़ों के लिए प्रावधान हैं।

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विशेष विवाह अधिनियम, 1954

अंतर-धार्मिक और अंतर-जातीय विवाहों के लिए यह अधिनियम लागू होता है। इसमें भी आपसी सहमति से तलाक का प्रावधान है।

हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13 बी के तहत आपसी सहमति से तलाक

1976 में हिंदू विवाह अधिनियम में संशोधन कर धारा 13 बी जोड़ी गई, जिसके तहत यदि पति-पत्नी एक वर्ष से अधिक समय से अलग रह रहे हों और उन्हें यह विश्वास हो कि अब वे वैवाहिक संबंधों को आगे नहीं बढ़ा सकते तो वे आपसी सहमति से तलाक की अर्जी दायर कर सकते हैं।

सुप्रीम कोर्ट का निर्णय – अमरदीप सिंह बनाम हरवीन कौर (2017)

सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक निर्णय में कहा कि धारा 13 बी में छह महीने की प्रतीक्षा अवधि अनिवार्य नहीं है। यदि दोनों पक्ष स्पष्ट रूप से तलाक चाहते हैं और सभी विवादों का निपटारा कर चुके हैं, तो अदालत इस अवधि को घटा सकती है।

आपसी सहमति से तलाक के लिए आवश्यक शर्तें

  • दोनों पक्ष कम से कम एक वर्ष से अलग रह रहे हों।
  • दोनों की स्पष्ट सहमति हो कि वे तलाक चाहते हैं।
  • संपत्ति, बच्चों की अभिरक्षा, भरण-पोषण, इत्यादि मुद्दों का समाधान आपसी सहमति से किया गया हो।
  • न्यायालय में पहली याचिका दाखिल करने के बाद छह महीने की प्रतीक्षा अवधि पूरी करनी होती है।
  • विशेष परिस्थितियों में न्यायालय इस अवधि को घटा सकता है।
  • पहली याचिका के 6 महीने बाद और अधिकतम 18 महीने के भीतर दूसरी याचिका दाखिल करना आवश्यक है।

आपसी सहमति से तलाक के लिए आवश्यक दस्तावेज

  • विवाह प्रमाण पत्र
  • पति-पत्नी के पहचान पत्र (आधार कार्ड, पैन कार्ड आदि)
  • निवास प्रमाण पत्र
  • दोनों पक्षों की संयुक्त या अलग-अलग तस्वीरें
  • आय प्रमाण पत्र
  • पिछले तीन वर्षों का आयकर रिटर्न
  • संपत्ति एवं चल-अचल संपत्ति का विवरण
  • एक वर्ष से अलग रहने का प्रमाण
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आपसी सहमति से तलाक की विस्तृत प्रक्रिया

याचिका दाखिल करना

पति-पत्नी मिलकर परिवार न्यायालय में संयुक्त याचिका दाखिल करते हैं।

दस्तावेजों की जांच

न्यायालय दस्तावेजों और सभी शर्तों का परीक्षण करती है।

पहली सुनवाई

अदालत दोनों पक्षों को समझौते और फैसले पर पुनर्विचार करने हेतु छह महीने का समय देती है।

दूसरी याचिका

पहली याचिका के 6 महीने बाद दोनों पक्ष यदि अपनी इच्छा पर अडिग रहें तो दूसरी याचिका दाखिल करनी होती है।

अंतिम सुनवाई

न्यायालय दोनों पक्षों की सहमति की पुष्टि करने के बाद तलाक का आदेश पारित करती है।

संपत्ति, भरण-पोषण और बच्चों की अभिरक्षा

अक्सर दोनों पक्ष आपसी सहमति से सभी वित्तीय और बच्चों से जुड़े मामलों का समाधान कर लेते हैं। यदि समझौता न हो तो न्यायालय इन मुद्दों पर अंतिम निर्णय करती है।

भरण-पोषण और बच्चों की अभिरक्षा न्यायालय में बच्चे के सर्वोत्तम हित (Best Interest of Child Principle) को ध्यान में रखकर तय की जाती है।

हालिया निर्णय 

अमरदीप सिंह बनाम हरवीन कौर – 6 महीने की अवधि केवल निर्देशात्मक है

सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला: सुप्रीम कोर्ट ने इस केस में स्पष्ट किया कि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13B(2) के अंतर्गत विवाह विच्छेद (Mutual Divorce) के लिए आवश्यक 6 महीने की प्रतीक्षा अवधि अनिवार्य नहीं, बल्कि निर्देशात्मक (directory) है।

मतलब: यदि दोनों पक्ष आपसी सहमति से तलाक चाहते हैं, और सभी जरूरी शर्तें पूरी हो चुकी हैं (जैसे अलग-अलग रहना आदि), तो कोर्ट इस 6 महीने की अवधि को घटा सकता है या हटा भी सकता है।

दिल्ली हाईकोर्ट का फैसला: घरेलू हिंसा के आधार पर 9 महीने में तलाक

मामले का सारांश: दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक ताजा फैसले में एक महिला को केवल 9 महीनों में तलाक की अनुमति दी, क्योंकि उसने घरेलू हिंसा, मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना के स्पष्ट सबूत कोर्ट के सामने पेश किए।

महत्व: यह फैसला दर्शाता है कि अगर महिला या पुरुष अदालत में प्रताड़ना के स्पष्ट 3प्रमाण प्रस्तुत करें, तो लंबी कानूनी प्रक्रिया को कम समय में पूरा किया जा सकता है।

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सुप्रीम कोर्ट का आदेश: कोर्ट मैरिज करने वाले जोड़ों को सुरक्षा

निर्णय का प्रभाव: सुप्रीम कोर्ट ने देशभर की पुलिस को आदेश दिया है कि जो जोड़े कोर्ट मैरिज करते हैं—खासकर वे जो जाति, धर्म या समुदाय के विरोध के बावजूद विवाह करते हैं—उन्हें सुरक्षा प्रदान की जाए।

महत्व: यह निर्णय “ऑनर किलिंग” या पारिवारिक धमकियों से बचाने के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। यह युवाओं के अधिकारों की रक्षा करता है कि वे अपनी मर्जी से शादी कर सकें।

निष्कर्ष

आपसी सहमति से तलाक सबसे सरल और कम विवाद वाला तरीका है, लेकिन फिर भी पूरी प्रक्रिया में सावधानी और उचित कानूनी सलाह आवश्यक है। सभी दस्तावेज और शर्तें पूरी करने पर प्रक्रिया बेहद सरल और शीघ्रता से पूरी हो सकती है।

यदि आप आपसी सहमति से तलाक की प्रक्रिया शुरू करना चाहते हैं तो अनुभवी अधिवक्ता की सहायता लें, ताकि प्रक्रिया में कोई कानूनी अड़चन न आए।

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FAQs

1. क्या दोनों पक्षों की सहमति आवश्यक है?

हां, दोनों पति-पत्नी की स्पष्ट सहमति अनिवार्य है।

2. कितनी अवधि बाद आपसी सहमति से तलाक लिया जा सकता है?

कम से कम एक वर्ष से अलग रहने के बाद।

3. छह महीने की अवधि घटाई जा सकती है?

हां, न्यायालय परिस्थिति के अनुसार इस अवधि को घटा सकता है।

4. आवश्यक दस्तावेज कौन से हैं?

विवाह प्रमाण पत्र, पहचान पत्र, आय प्रमाण, संपत्ति विवरण आदि।

5 संपत्ति और बच्चों की अभिरक्षा कैसे तय होती है?

यदि दोनों पक्ष आपसी सहमति न बना सकें तो न्यायालय निर्णय करता है।

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