भारत में विवाह केवल व्यक्तिगत या धार्मिक बंधन नहीं है, बल्कि यह एक कानूनी संस्था भी है। जब पति-पत्नी के बीच विवाद होते हैं, तो सबसे बड़ी जिम्मेदारी न्यायालय पर आती है कि वह दोनों पक्षों के अधिकारों की रक्षा करे।
सुप्रीम कोर्ट ने वर्षों से ऐसे अनेक निर्णय दिए हैं, जिन्होंने तलाक, मेंटेनेंस, कस्टडी और विवाह की परिभाषा को नया रूप दिया है। इन फैसलों ने केवल कानून नहीं बदले, बल्कि समाज की सोच और पारिवारिक मूल्यों को भी प्रभावित किया।
भारत का सुप्रीम कोर्ट, जो सबसे बड़ी अदालत है, इन मामलों में बहुत अहम भूमिका निभाता है। यह हिंदू मैरिज एक्ट, 1955, स्पेशल मैरिज एक्ट, 1954 और अन्य पर्सनल लॉ की व्याख्या करता है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले न सिर्फ़ एक परिवार के विवाद को सुलझाता है बल्कि पूरे देश की निचली अदालतों और परिवारों के लिए मार्गदर्शन भी तय करते हैं।
इस ब्लॉग का उद्देश्य है कि आम नागरिक समझ सकें – सुप्रीम कोर्ट के इन फैसलों से उनके अधिकार, जिम्मेदारियाँ और कानूनी विकल्प क्या हैं।
तलाक से जुड़े सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले
1. अमरदीप सिंह बनाम हरवीन कौर (2017)
मुद्दा: क्या म्युचुअल डिवोर्स (आपसी सहमति से तलाक) में 6 महीने का इंतज़ार करना ज़रूरी है?
फैसला: सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हिंदू मैरिज एक्ट की धारा 13B (2) के तहत 6 महीने का “कूलिंग ऑफ पीरियड” ज़रूरी (Mandatory) नहीं है, बल्कि सिर्फ़ मार्गदर्शन (Directory) है। यानी कोर्ट चाहे तो इसे हटा सकता है अगर –
- पति-पत्नी 18 महीने से ज़्यादा समय से अलग रह रहे हों,
- मेल-मिलाप या सौहार्दपूर्ण समझौता की कोई संभावना न हो,
- मेंटेनेंस, बच्चों की कस्टडी और संपत्ति का बंटवारा सब तय हो चुका हो।
अब पति-पत्नी को बेवजह 6 महीने इंतज़ार नहीं करना पड़ेगा अगर दोनों तलाक के लिए पूरी तरह तैयार हैं।
2. शिल्पा शैलेश बनाम वरुण श्रीनिवासन, 2023
मुद्दा: क्या सुप्रीम कोर्ट शादी को “अपरिवर्तनीय टूटन” (Irretrievable Breakdown) के आधार पर बिना इंतज़ार के खत्म कर सकती है?
फैसला: सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 142 के तहत सुप्रीम कोर्ट को यह अधिकार है कि अगर शादी पूरी तरह टूट चुकी है और उसे बचाना नामुमकिन है, तो कोर्ट तलाक दे सकती है, भले ही क़ानून में लिखे सामान्य आधार पूरे न हों।
अब सुप्रीम कोर्ट उन मामलों में जहाँ रिश्ता बिल्कुल खत्म हो चुका हो, लोगों को लंबे इंतजार और बेवजह की प्रक्रिया से बचाकर तुरंत तलाक दिला सकती है।
3. समर घोष बनाम जया घोष (2007)
मुद्दा: तलाक के लिए “क्रूरता (Cruelty)” का मतलब क्या है? क्या सिर्फ शारीरिक हिंसा ही क्रूरता मानी जाएगी या मानसिक तकलीफ़ भी?
फैसला: सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मानसिक क्रूरता भी तलाक का आधार हो सकती है। कोर्ट ने कुछ उदाहरण दिए –
- बार-बार बेइज़्ज़ती करना या झूठे आरोप लगाना।
- पति-पत्नी के बीच शारीरिक संबंध बनाने से बिना वजह लगातार इनकार करना।
- पूरी तरह लापरवाही दिखाना या रिश्ते में बिल्कुल ध्यान न देना।
- लंबे समय तक अलग रहना।
अब तलाक सिर्फ शारीरिक हिंसा पर ही नहीं, बल्कि मानसिक पीड़ा और उपेक्षा के आधार पर भी लिया जा सकता है।
बच्चे की कस्टडी से जुड़े सुप्रीम कोर्ट के फैसले
1. गौरव नागपाल बनाम सुमेधा नागपाल (2008)
मुद्दा: बच्चे की कस्टडी किसे मिले – पिता को या माँ को?
फैसला: सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यहाँ सबसे ज़रूरी है बच्चे का भला (Welfare of the Child) । न तो पिता और न ही माँ का कोई पूरी तरह का हक़ है। कस्टडी तय करने के लिए ये बातें देखी जाएँगी –
- बच्चे की पढ़ाई और शिक्षा
- भावनात्मक ज़रूरतें (माँ-बाप का प्यार और देखभाल)
- आर्थिक स्थिति (कौन अच्छी देखभाल कर सकता है)
- बच्चे की इच्छा और पसंद
अब कस्टडी का फैसला माँ-बाप के अधिकार देखकर नहीं, बल्कि बच्चे की भलाई और भविष्य देखकर लिया जाता है।
2. रौक्सैन शर्मा बनाम अरुण शर्मा (2015)
मुद्दा: क्या 5 साल से छोटे बच्चे की कस्टडी अपने-आप माँ को मिलती है?
फैसला: हाँ, हिंदू माइनॉरिटी एंड गार्जियनशिप एक्ट, 1956 की धारा 6 के अनुसार 5 साल से छोटे बच्चे की देखभाल आमतौर पर माँ को ही दी जाती है। लेकिन अगर यह साबित हो जाए कि माँ बच्चे की ठीक तरह से देखभाल नहीं कर सकती, तभी अपवाद होगा।
कोर्ट ने साफ किया कि छोटे बच्चों के लिए माँ की भूमिका सबसे अहम मानी जाएगी और वही प्राथमिक हक़दार होगी।
3. विवेक कुमार चतुर्वेदी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य। (2025)
मुद्दा: क्या पिता दूसरी शादी करने के बाद भी अपने बच्चे की कस्टडी माँग सकता है, जो नाना-नानी के पास है?
फैसला:
- पिता बच्चा का नेचुरल गार्जियन है।
- दूसरी शादी करने से पिता का कस्टडी का अधिकार खत्म नहीं होता।
- नाना-नानी का अधिकार पिता से ऊपर नहीं हो सकता।
- केवल तभी नाना-नानी को कस्टडी मिल सकती है जब पिता अयोग्य या अक्षम साबित हो।
यह फैसला साफ करता है कि माता-पिता का अधिकार नाना-नानी से ऊपर होता है। दूसरी शादी करने से पिता का कस्टडी का हक़ खत्म नहीं होता। साथ ही, कोर्ट ने बच्चे के हित को सबसे अहम मानते हुए संतुलित और मानवीय समाधान दिया।
मेंटेनेंस पर सुप्रीम कोर्ट के महत्वपूर्ण निर्णय
1. रोहताश सिंह बनाम श्रीमती रामेन्द्री (2000)
मुद्दा: क्या तलाकशुदा पत्नी, खासकर जिसे डेज़र्शन (घर छोड़ देने) जैसी वजह से तलाक दिया गया हो, फिर भी भरण-पोषण (Maintenance) ले सकती है?
फैसला: सुप्रीम कोर्ट ने कहा –
- तलाक के बाद भी पत्नी भरण-पोषण की हकदार है।
- केवल भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 144(4) में लिखे अपवादों में ही उसका हक खत्म होगा।
- पत्नी की गलती या डेज़र्शन जैसी वजह से उसका हक नहीं छीना जा सकता।
इस फैसले ने साफ किया कि भरण-पोषण का कानून वेलफेयर-केंद्रित है और तलाकशुदा औरत को राहत देने के लिए है।
2. रजनेश बनाम नेहा (2020)
मुद्दा: कोर्ट इंटरिम मेंटेनेंस (केस चलते वक्त मिलने वाला भरण-पोषण), बकाया रकम और पति-पत्नी के बीच भरण-पोषण से जुड़े झगड़े कोर्ट कैसे सुलझाए?
फैसला: सुप्रीम कोर्ट ने गाइडलाइन्स बनाई:
- मेंटेनेंस कैसे कैलकुलेट होगा।
- किस तारीख से मिलेगा।
- अलग-अलग कानूनों में ओवरलैप कैसे सुलझेगा।
इस केस ने मेंटेनेंस मामलों में एकरूपता और स्पष्टता लाई ताकि लंबे समय तक केस लटकने से पत्नी और बच्चे परेशान न हों।
3. नेहा त्यागी बनाम लेफ्टिनेंट कर्नल दीपक त्यागी (2021)
मुद्दा: क्या पिता की जिम्मेदारी बेटे का भरण-पोषण करने की खत्म हो जाती है अगर वो दोबारा शादी कर ले या शादी में दिक्कतें हों?
फैसला: सुप्रीम कोर्ट ने कहा –
- पिता की जिम्मेदारी बेटे का भरण-पोषण करने की तब तक है जब तक बेटा बालिग न हो जाए।
- तलाक का आदेश पिता को इस जिम्मेदारी से मुक्त नहीं करता।
यह फैसला बताता है कि बच्चे का वेलफेयर सबसे ऊपर है और पिता-पुत्र का रिश्ता कभी खत्म नहीं होता।
विवाह की वैधता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय
1. लता सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2006)
मुद्दा: क्या बालिग लड़का-लड़की बिना परिवार की दखलअंदाजी के अपनी पसंद से, जाति या धर्म से बाहर शादी कर सकते हैं?
फैसला: सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि बालिगों को अपनी पसंद के साथी से शादी करने का हक है। पुलिस को भी निर्देश दिए कि ऐसे कपल्स को परिवार या समाज की परेशानियों से बचाया जाए।
इस फैसले से यह हक और मजबूत हुआ कि हर व्यक्ति को अपनी पसंद से शादी करने की आज़ादी है। यह अधिकार अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) के तहत संरक्षित है।
2. शफीन जहां बनाम अशोकन (2018) – हादिया केस
मुद्दा: क्या धर्म अलग होने पर भी शादी वैध है, अगर परिवार इसके खिलाफ है?
फैसला: सुप्रीम कोर्ट ने हदिया और शफीन जहाँ की शादी को सही माना और साफ किया कि किसी की भी पसंद पर परिवार रोक नहीं लगा सकता।
इस फैसले से यह बात दोहराई गई कि हर बालिग को धर्म या जाति से परे, अपनी पसंद से शादी करने का हक है।
3. जोसेफ शाइन बनाम भारत संघ (2018)
मुद्दा: क्या व्यभिचार (Adultery) एक अपराध है?
फैसला: सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आईपीसी की धारा 497 अब मान्य नहीं है। यानी अब व्यभिचार (Adultery) अपराध नहीं है। लेकिन अगर पति-पत्नी में से कोई व्यभिचार करता है तो यह तलाक का आधार बन सकता है।
महत्त्व: इस फैसले से कानून व्यक्तिगत आज़ादी के अनुरूप हुआ। यानी जेल की सज़ा नहीं होगी, लेकिन तलाक लिया जा सकता है।
4. डॉली रानी बनाम मनीष कुमार चंचल (2024)
मुद्दा: क्या केवल रजिस्ट्रेशन से शादी वैध हो सकती है, अगर हिंदू रीति-रिवाज़ (जैसे सप्तपदी) पूरे न किए जाएँ?
फैसला: सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हिन्दू मैरिज एक्ट की धारा 7 के तहत शादी तभी वैध है जब जरूरी रीति-रिवाज़ पूरे किए जाएँ। सिर्फ रजिस्ट्रेशन से शादी वैध नहीं मानी जाएगी।
यह साफ किया गया कि विवाह सिर्फ कागज़ी प्रक्रिया नहीं, बल्कि एक धार्मिक व कानूनी संस्कार है।
5. सरला मुद्गल बनाम भारत संघ (1995)
मुद्दा: क्या कोई हिंदू पति इस्लाम धर्म अपनाकर बिना पहली शादी तोड़े दूसरी शादी कर सकता है?
फैसला: सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि धर्म परिवर्तन से पहली शादी खत्म नहीं होती। पहली शादी रहते हुए दूसरी शादी करना भारतीय न्याय संहिता 2023 की धारा 82 के तहत बिगैमी (द्विविवाह) है और गैर-कानूनी है।
इस फैसले ने धर्म परिवर्तन का दुरुपयोग रोकते हुए विवाह कानून की पवित्रता बरकरार रखी। साथ ही कोर्ट ने अनुच्छेद 44 के तहत समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) लागू करने की सिफारिश भी की।
आम नागरिकों के लिए सीख
- तलाक का मतलब सिर्फ रिश्ता तोड़ना नहीं, बल्कि एक न्यायपूर्ण समाधान खोजना भी है।
- मेंटेनेंस और कस्टडी में अब कोर्ट महिला, पुरुष और बच्चों—सभी के अधिकारों को बराबरी से देखता है।
- शादी केवल धार्मिक रस्म नहीं, बल्कि हर व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता और संविधान से मिला अधिकार है।
- दहेज और घरेलू हिंसा जैसे संवेदनशील मामलों पर कोर्ट ने संतुलित और व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाया है।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट हमेशा से परिवारिक मामलों में लोगों के अधिकारों का संरक्षक रहा है। कोर्ट ने परंपराओं और आधुनिक मूल्यों के बीच संतुलन बनाकर, तलाक, कस्टडी और शादी जैसे संवेदनशील मामलों में न्याय दिया है।
पीड़ितों के लिए इसका मतलब है:
- आपको एक टूटी हुई शादी में जबरदस्ती नहीं रहना पड़ेगा।
- बच्चों का भला और उनका भविष्य हमेशा सबसे पहले देखा जाएगा।
- आप अपनी पसंद से शादी करने के लिए स्वतंत्र हैं।
- तलाक के बाद भी आपके लिए आर्थिक सुरक्षा का हक मौजूद है।
इन फैसलों को समझकर आप सही कानूनी कदम उठा सकते हैं और मुश्किल पारिवारिक विवादों से निपटने में मजबूत बन सकते हैं।
किसी भी कानूनी सहायता के लिए लीड इंडिया से संपर्क करें। हमारे पास लीगल एक्सपर्ट की पूरी टीम है, जो आपकी हर संभव सहायता करेगी।
FAQs
1. म्युचुअल डाइवोर्स में 6 महीने की वेटिंग कब माफ हो सकती है?
अगर पति-पत्नी 18 महीने से अलग रह रहे हों और सुलह की कोई संभावना न हो, तो कोर्ट वेटिंग हटा सकती है।
2. बच्चे की कस्टडी का फैसला किस आधार पर होता है?
कस्टडी तय करते समय कोर्ट हमेशा बच्चे की पढ़ाई, स्वास्थ्य, भावनात्मक जरूरतें और भविष्य की भलाई को प्राथमिकता देती है।
3. क्या इंटर-रिलिजन शादी भारत में कानूनी है?
हाँ, स्पेशल मैरिज एक्ट (SMA) के तहत इंटर-रिलिजन शादी पूरी तरह वैध है और सुप्रीम कोर्ट ने इसे संवैधानिक अधिकार माना है।
4. समलैंगिक विवाह पर सुप्रीम कोर्ट का क्या रुख है?
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अभी शादी को कानूनी मान्यता नहीं है, लेकिन LGBTQ+ समुदाय के अधिकार और स्वतंत्रता सुरक्षित रहेंगे।



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