भारत में यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड (UCC) का मुद्दा कई सालों से चर्चा में है। सुप्रीम कोर्ट ने भी समय-समय पर इस पर अपनी राय रखी है। कोर्ट का कहना है कि अगर सभी नागरिकों के लिए शादी, तलाक, सक्सेशन और एडॉप्शन जैसे मामलों में एक समान क़ानून हो, तो यह बराबरी और न्याय को मज़बूत करेगा। लेकिन साथ ही कोर्ट यह भी मानता है कि UCC लागू करते समय लोगों के धार्मिक और सांस्कृतिक अधिकारों की रक्षा ज़रूरी है।
आसान भाषा में कहें तो सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि UCC से देश में समानता बढ़ेगी, लेकिन यह संविधान द्वारा दिए गए धर्म और संस्कृति की आज़ादी को कमज़ोर नहीं करना चाहिए। यही संतुलन इस बहस को इतना महत्वपूर्ण बनाता है।
यह ब्लॉग बताएगा कि सुप्रीम कोर्ट का UCC पर क्या रुख है, संविधान में इसके लिए क्या प्रावधान हैं, सुप्रीम कोर्ट के अहम फैसले कौन से हैं, UCC से जुड़े अधिकार और सीमाएँ क्या हैं, और इसे लागू करने में कौन-कौन सी व्यावहारिक चुनौतियाँ आती हैं।
UCC क्या है? यह इतना चर्चे में क्यों है?
भारत एक विविधता वाला देश है जहाँ अलग-अलग धर्म और समुदाय रहते हैं। हर धर्म के अपने-अपने निजी कानून हैं। जैसे –
- हिंदुओं के लिए हिंदू मैरिज एक्ट, हिंदू सक्सेशन एक्ट आदि लागू होते हैं।
- मुस्लिम के लिए शादी, तलाक और विरासत के लिए शरीयत कानून मानते हैं।
- ईसाई और पारसी समुदाय के अपने अलग पारिवारिक कानून हैं।
यह अलग-अलग कानून कई बार असमानता और भेदभाव पैदा कर देते हैं, खासकर महिलाओं के अधिकारों में।
इसी समस्या को दूर करने के लिए संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद 44 में लिखा कि राज्य को यूनिफॉर्म सिविल कोड (UCC) लागू करने की कोशिश करनी चाहिए। लेकिन आज़ादी के 75 साल बाद भी UCC पूरी तरह लागू नहीं हो पाया है।
अब सवाल उठता है – सुप्रीम कोर्ट का UCC की वैधता और ज़रूरत पर क्या कहना है?
UCC के संवैधानिक प्रावधान
- अनुच्छेद 44 (राज्य नीति के निदेशक तत्व) – इसमें कहा गया है कि राज्य पूरे भारत में एक समान सिविल कोड लागू करने की कोशिश करेगा। हालांकि, यह अनुच्छेद अदालतों द्वारा लागू कराने योग्य नहीं है, बल्कि सरकार के लिए एक मार्गदर्शक सिद्धांत है।
- अनुच्छेद 25 और 26 (धर्म की स्वतंत्रता) – हर नागरिक को यह अधिकार देता है कि वह अपनी पसंद का धर्म मान सके, उसका पालन कर सके और प्रचार कर सके। इसका मतलब है कि धर्म से जुड़े व्यक्तिगत रीति-रिवाज और परंपराओं को भी सुरक्षा दी गई है।
- अनुच्छेद 14 और 15 (बराबरी और भेदभाव से सुरक्षा) – सभी नागरिकों को कानून के सामने समानता का अधिकार देता है और धर्म, जाति, लिंग आदि के आधार पर किसी भी तरह के भेदभाव को रोकता है।
इसी कारण विवाद पैदा होता है एक तरफ UCC (अनुच्छेद 44) सबके लिए एक समान कानून चाहता है, तो दूसरी तरफ धार्मिक स्वतंत्रता (अनुच्छेद 25 और 26) लोगों को अपने धर्म के हिसाब से कानून और परंपराओं को मानने की अनुमति देता है।
सुप्रीम कोर्ट का काम है इन दोनों के बीच संतुलन बनाना यानी न तो धार्मिक आज़ादी का हनन हो और न ही बराबरी और न्याय से समझौता।
सुप्रीम कोर्ट का रुख – ऐतिहासिक टिप्पणियाँ
शाह बानो केस (मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम, 1985)
- मुस्लिम महिला शाह बानो को तलाक के बाद भरण-पोषण (maintenance) का हक़ मिला।
- सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि धर्म का पालन करते हुए भी महिलाओं को न्याय और संरक्षण मिलना चाहिए।
- कोर्ट ने UCC लागू करने की आवश्यकता पर टिप्पणी की, ताकि महिलाओं के अधिकार सुनिश्चित हों।
सरला मुद्गल केस (1995)
- मुस्लिम बहुविवाह के दुरुपयोग पर सुनवाई हुई, जहां पुरुष अपनी सुविधा के लिए कई विवाह कर रहे थे।
- सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि बहुविवाह सामाजिक और कानूनी असमानता बढ़ाता है।
- इस केस में कोर्ट ने UCC की आवश्यकता पर जोर दिया, ताकि सभी समुदायों में समान कानून हो।
जॉन वल्मत्ति केस (1986)
- ईसाई महिलाओं को उत्तराधिकार में समान अधिकार नहीं मिल रहे थे।
- सुप्रीम कोर्ट ने इस असमानता की आलोचना की और कहा कि महिलाओं को बराबरी का अधिकार होना चाहिए।
- कोर्ट ने UCC के माध्यम से महिलाओं के समान अधिकार सुनिश्चित करने की जरूरत जताई।
शायरा बानो केस (Triple Talaq, 2017)
- मुस्लिम महिलाओं के लिए तीन तलाक (Triple Talaq) असंवैधानिक ठहराया गया।
- कोर्ट ने कहा कि यह महिलाओं के अधिकारों का उल्लंघन है और उन्हें सुरक्षा और न्याय मिलना चाहिए।
- फैसले में समान कानून (UCC) लागू करने की जरूरत पर जोर दिया गया।
सुप्रीम कोर्ट का UCC पर रुख
- UCC का सिद्धांत में समर्थन: सुप्रीम कोर्ट हमेशा कहती रही है कि UCC लागू होने से देश में एकता और समानता बढ़ेगी।
- न्यायिक सीमाएँ: कोर्ट ने साफ़ किया है कि UCC बनाना और लागू करना संसद का काम है, न्यायपालिका का नहीं। कोर्ट केवल कानून की व्याख्या कर सकती है, नया कानून नहीं बना सकती।
- अधिकारों का संतुलन: कोर्ट कहती है कि अनुच्छेद 25 के तहत धर्म की स्वतंत्रता होती है, लेकिन यह सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता, स्वास्थ्य और अन्य मौलिक अधिकारों के अधीन है। इसका मतलब है कि व्यक्तिगत कानून संविधान के अधिकारों के ऊपर नहीं हो सकते।
- धीरे-धीरे सुधार: सुप्रीम कोर्ट चाहती है कि UCC को अचानक लागू न किया जाए, बल्कि छोटे-छोटे सुधार किए जाएँ। उदाहरण: शाह बानो केस और शायरा बानो केस में कोर्ट ने महिलाओं के अधिकारों को सुधारने के लिए क्रमिक कदम उठाए।
संवैधानिक अधिकार और सीमाएँ
- समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14): सभी नागरिकों के साथ समान व्यवहार होना चाहिए।
- धर्म की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 25): व्यक्तिगत कानूनों की रक्षा करता है, लेकिन इसकी सीमा होती है – यह संविधान के अन्य अधिकारों के खिलाफ नहीं जा सकता।
- निर्देशक सिद्धांत (अनुच्छेद 44): सरकार को UCC की ओर कदम बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करता है, लेकिन इसे अदालत से लागू नहीं कराया जा सकता।
UCC संविधान के तहत वैध है, लेकिन इसे लागू करना संसद/सरकार का काम है, न्यायालय का नहीं।
UCC लागू करने में व्यावहारिक चुनौतियाँ
- धार्मिक संवेदनशीलता: व्यक्तिगत कानून धर्म और परंपरा से जुड़े होते हैं, इसलिए बदलाव पर लोग संवेदनशील होते हैं।
- राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी: सरकारें वोट बैंक खोने के डर से निर्णय लेने में हिचकती हैं।
- रिवाजों में विविधता: एक ही धर्म में भी अलग-अलग क्षेत्र और समुदाय के रिवाज अलग होते हैं।
- महिला अधिकार बनाम धर्म: कई व्यक्तिगत कानून महिलाओं के खिलाफ भेदभाव करते हैं, लेकिन सुधार को धर्म में दखल माना जाता है।
- सहमति की कमी: अलग-अलग समुदाय UCC पर अलग राय रखते हैं, इसलिए सभी को संतुष्ट करना मुश्किल है।
UCC की वर्तमान स्थिति
- सुप्रीम कोर्ट के विचार (2023–2024): हाल ही में दाखिल कुछ मामलों में कोर्ट ने कहा कि UCC पर फैसला संसद का काम है और उसने कोई निर्देश नहीं दिए।
- राज्य स्तर की पहल: 2024 में उत्तराखंड पहला राज्य बना जिसने सभी निवासियों (जनजातीय समुदायों को छोड़कर) के लिए UCC पास किया। गुजरात और असम जैसे राज्यों ने भी रुचि दिखाई है।
- जनहित याचिकाएँ (PILs): सुप्रीम कोर्ट में कई PILs दाखिल हुई हैं जो UCC की मांग करती हैं, लेकिन कोर्ट बार-बार कह चुकी है कि यह निर्णय पार्लियामेंट का काम है।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट का UCC पर रुख स्पष्ट लेकिन सावधान है। कोर्ट सामान्य नागरिक कानून के विचार का समर्थन करता है ताकि सभी के लिए समानता, महिलाओं के अधिकार और राष्ट्रीय एकता सुनिश्चित हो, लेकिन यह जानते हुए कि कानून बनाने का काम सिर्फ़ विधायिका (संसद) का है।
संविधान के तहत UCC वैध है, लेकिन इसकी सीमा धार्मिक स्वतंत्रता और राजनीतिक हकीकतों से तय होती है। सुप्रीम कोर्ट ने यह तरीका अपनाया है कि सुधार धीरे-धीरे, केस दर केस किए जाएँ, बजाय इसके कि अदालत सीधे समान कानून थोप दे।
UCC पर बहस जारी है, लेकिन यह तय है कि जब भी समानता और धार्मिक स्वतंत्रता के बीच टकराव होगा, सुप्रीम कोर्ट इसकी निगरानी और संतुलन बनाने में अहम भूमिका निभाएगा।
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FAQs
1. क्या सुप्रीम कोर्ट UCC लागू कर सकता है?
नहीं, इसे लागू करना संसद का काम है।
2. UCC पर सुप्रीम कोर्ट का रुख क्या है?
कोर्ट इसे प्रगतिशील मानता है लेकिन जिम्मेदारी विधायिका की है।
3. क्या UCC मौलिक अधिकारों के खिलाफ है?
नहीं, यह समानता और धार्मिक स्वतंत्रता के बीच संतुलन लाने की कोशिश है।
4. क्या महिलाओं को UCC से फायदा होगा?
हां, इससे तलाक, मेंटेनेंस और संपत्ति में समान अधिकार मिलेंगे।
5. क्या सभी राज्यों में UCC अनिवार्य होगा?
संसद कानून बनाएगी तो यह पूरे भारत में लागू हो सकता है।



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