BNSS धारा 183: क्या है, प्रक्रिया, अधिकार और कानूनी महत्व?

BNSS Section 183: What is it, procedure, rights and legal importance

मान लीजिए आप किसी आपराधिक मामले में शामिल हैं – चाहे पीड़ित के तौर पर, गवाह के रूप में, या आरोपी की तरह। एक समय ऐसा आता है जब आपको अपनी बात कानूनन तरीके से बतानी होती है। अब सवाल ये है – कैसे पक्का किया जाए कि जो बात आप कह रहे हैं वो सच है, आप अपनी मर्ज़ी से कह रहे हैं और किसी ने आपको मजबूर नहीं किया?

यहीं पर भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता 2023 (BNSS) की धारा 183 काम आती है।

इस कानून के तहत, मजिस्ट्रेट (जज) आपके बयान या कबूलनामे को जांच के दौरान रिकॉर्ड करता है। सबसे ज़रूरी बात ये है कि ये बयान आपकी मर्जी से होना चाहिए, बिना किसी दबाव या डर के। इससे केस में एक मजबूत और भरोसेमंद रिकॉर्ड बनता है, जो आगे चलकर अदालत में मदद करता है।

धारा 183 BNSS क्या कहती है?

अगर कोई अपराध हुआ है, तो मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट या ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट कुछ जरूरी बयान दर्ज कर सकते हैं:

कौन से बयान दर्ज होते हैं?

  • अभियुक्त (जिस पर अपराध का शक है) अगर खुद से जुर्म कबूल करता है, तो उसका बयान।
  • गवाह या पीड़ित का बयान, जो जांच के दौरान दिया गया हो।

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मजिस्ट्रेट को क्या ध्यान रखना होता है?

  • मजिस्ट्रेट को देखना होता है कि कोई दबाव या डर में आकर बयान तो नहीं दिया जा रहा।
  • अगर कोई अभियुक्त है, तो उसे थोड़ा समय सोचने के लिए भी दिया जाता है।
  • मजिस्ट्रेट यह भी बताते हैं कि: तुम्हें कुछ भी कबूल करने की मजबूरी नहीं है। अगर तुम कुछ कबूल करते हो, तो वो कोर्ट में तुम्हारे खिलाफ इस्तेमाल हो सकता है।

बयान कैसे दर्ज किया जाता है?

  • बयान लिखित रूप में होता है और उस पर बयान देने वाला और मजिस्ट्रेट दोनों साइन करते हैं।
  • कुछ मामलों में, जैसे कि रेप केस, बयान वीडियो रिकॉर्डिंग के जरिए भी दर्ज किया जा सकता है, ताकि सब कुछ साफ-साफ और सुरक्षित तरीके से हो।

धारा 183 क्यों ज़रूरी है?

1. पुलिस के दबाव से बचाव: भारत में अक्सर ऐसा होता है कि पुलिस दबाव डालकर किसी से जबरदस्ती बयान दिलवा देती है। धारा 183 में बयान मजिस्ट्रेट के सामने होता है, जो एक स्वतंत्र और निष्पक्ष अधिकारी होता है। इससे यह तय होता है कि बयान बिना किसी दबाव के दिया गया है।

2. मुकदमे को मजबूत बनाता है: अगर कोई बयान या कबूलनामा धारा 183 के तहत सही तरीके से दिया गया हो, तो उसका कानूनी मूल्य होता है। यह कोर्ट में एक मज़बूत सबूत बन सकता है।

3. जांच में पारदर्शिता लाता है: जब मजिस्ट्रेट शुरुआत में ही जांच में शामिल होता है, तो यह तय होता है कि सब कुछ कानून के अनुसार और ईमानदारी से हो रहा है। इससे लोगों का न्याय व्यवस्था पर भरोसा बढ़ता है।

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कौन बयान दे सकता है?

  • आरोपी (जिस पर आरोप है): आरोपी अपना इक़बाले-जुर्म (confession) दे सकता है, लेकिन ये पूरी तरह से उसकी मर्ज़ी से होना चाहिए। उस व्यक्ति को ये अच्छी तरह समझना चाहिए कि उसके बयान का क्या असर हो सकता है।
  • पीड़ित (जैसे बलात्कार या यौन शोषण के मामले में): ऐसे मामलों में पीड़ित का बयान जल्दी लिया जाता है ताकि सही बात शुरू में ही दर्ज हो जाए। ये बयान अक्सर मजिस्ट्रेट के सामने धारा  183 के तहत दर्ज किया जाता है।
  • गवाह (जिसने कुछ देखा हो): अगर किसी ने वारदात से जुड़ी कोई ज़रूरी बात देखी है, तो उसका बयान भी BNSS की धारा 183 के तहत दर्ज किया जा सकता है।

बयान दर्ज करने की प्रक्रिया कैसे होती है?

स्टेप 1: रिक्वेस्ट करना (बयान दर्ज कराने की मांग)

  • पुलिस या जांच अधिकारी मजिस्ट्रेट से कह सकते हैं कि किसी आरोपी, गवाह या पीड़ित का बयान दर्ज किया जाए।
  • कभी-कभी खुद व्यक्ति (जैसे आरोपी या पीड़ित) भी बयान दर्ज कराने की मांग कर सकता है।

स्टेप 2: बयान की स्वेच्छा से होना जरूरी है

  • मजिस्ट्रेट पहले उस व्यक्ति से अकेले में बात करता है, पुलिस को दूर रखकर। वो यह सुनिश्चित करता है कि कोई डर, दबाव या लालच नहीं है।
  • अगर वो व्यक्ति आरोपी है, तो उसे बताया जाता है कि उसे कुछ भी बोलने की मजबूरी नहीं है, और जो भी वो बोलेगा, उसका इस्तेमाल उसके खिलाफ हो सकता है।

स्टेप 3: सोचने के लिए समय देना

अक्सर आरोपी को 24 घंटे का समय दिया जाता है ताकि वो सोच-समझकर निर्णय ले सके कि उसे इक़बाले-जुर्म देना है या नहीं।

स्टेप 4: बयान रिकॉर्ड करना

  • अगर व्यक्ति तैयार हो, तो मजिस्ट्रेट उसका बयान लिखित रूप में या वीडियो रिकॉर्डिंग के ज़रिए दर्ज करता है।
  • बयान को फिर उस व्यक्ति को पढ़कर सुनाया जाता है और उससे साइन करवाया जाता है।
  • मजिस्ट्रेट भी उस पर दस्तख़त करता है और यह लिखता है कि बयान स्वेच्छा से दिया गया है, किसी दबाव में नहीं।

किस तरह के बयान दर्ज किए जाते हैं?

कॉन्फेशन

  • यह बयान आरोपी देता है।
  • अगर यह बयान उसकी अपनी मर्ज़ी से और सच साबित हो जाए, तो इसे सबूत के तौर पर उसके खिलाफ इस्तेमाल किया जा सकता है।

स्टेटमेंट

  • यह बयान गवाह या पीड़ित देता है।
  • इसमें वो बताते हैं कि उन्होंने क्या देखा या उनके साथ क्या हुआ। इसमें कोई जुर्म कबूल नहीं होता।
  • खासकर यौन शोषण या बलात्कार जैसे मामलों में पीड़िता का बयान (धारा 183 के तहत) बहुत अहम होता है और केस की सुनवाई के दौरान सबूत के रूप में लिया जाता है।
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धारा 183 के तहत कानूनी सुरक्षा

  • मजिस्ट्रेट का काम पूरी तरह स्वतंत्र होता है: बयान दर्ज करते समय पुलिस को वहाँ नहीं रहने दिया जाता, ताकि कोई दबाव ना हो।
  • कोई ज़बरदस्ती नहीं की जा सकती: बयान देने वाले व्यक्ति पर कोई दबाव नहीं डाला जा सकता। उसे मजबूर नहीं किया जा सकता कि वो कुछ बोले।
  • आरोपी को पहले ही चेतावनी दी जाती है: उसे साफ-साफ बताया जाता है कि उसे कुछ भी कबूल करने की ज़रूरत नहीं है। और अगर वो कुछ बोलेगा, तो उसका इस्तेमाल उसके खिलाफ किया जा सकता है।
  • बयान को बाद में बदला भी जा सकता है: अगर बाद में कोर्ट को लगे कि बयान दबाव या डर की वजह से दिया गया था, तो कोर्ट उसे मानने से इनकार कर सकती है।

अगर कोई बाद में अपना बयान बदलता है, तो क्या होता है?

यह अक्सर क्रिमिनल मामलों में होता है। कभी-कभी व्यक्ति केस के दौरान अपना बयान बदल देता है। तो फिर क्या होता है, आइए जानते हैं:

अगर किसी ने धारा 183 के तहत बयान दिया और बाद में कोर्ट में वो बयान बदलता है, तो पुराना बयान फिर भी इस्तेमाल किया जा सकता है:

  • उसकी बातों से विरोध (Contradict) करने के लिए, यानी ये दिखाने के लिए कि वो सच नहीं बोल रहा है।
  • अदालत में अभियोजन पक्ष (Prosecution) का समर्थन करने के लिए, खासकर अगर बयान पूरी तरह से स्वेच्छा से और सही तरीके से दिया गया था।

हालांकि, अगर इक़बाले-जुर्म दबाव या ज़बरदस्ती से दिया गया था, तो कोर्ट उसे पूरी तरह से नकार सकती है।

धारा 183 और यौन अपराध

हाल के सालों में, धारा 183 यौन अपराधों (जैसे बलात्कार, पोक्सो के मामले) में खास महत्व प्राप्त कर चुका है। यह क्यों ज़रूरी है, आइए समझें:

  • पीड़िता अपनी बात जांच के दौरान ही, ट्रायल से पहले, दर्ज करा सकती है।
  • इससे महत्वपूर्ण जानकारी सुरक्षित रहती है, खासकर अगर बाद में पीड़िता उपलब्ध नहीं हो पाती या सहयोग नहीं करती।
  • कोर्ट ने कहा है कि ऐसे बयान तुरंत और संवेदनशील तरीके से दर्ज किए जाने चाहिए, ताकि सही जानकारी मिले।

धारा 183 से जुड़ी कुछ आम गलतफहमियाँ

“अगर मैंने इक़बाले-जुर्म कर लिया, तो मुझे सज़ा पक्की है।”

सच: ऐसा ज़रूरी नहीं है। कोर्ट पहले देखती है कि बयान अपनी मर्ज़ी से, बिना दबाव के और सच्चाई के साथ दिया गया है या नहीं। साथ ही, बाकी सबूत भी देखे जाते हैं।

“अगर मैंने धारा 183 के तहत बयान दे दिया, तो मैं उसे बाद में बदल नहीं सकता।”

सच: आप बयान बदल सकते हैं, लेकिन बार-बार बात बदलने से आपकी विश्वसनीयता पर असर पड़ता है।

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“पुलिस मेरा 183 वाला बयान दर्ज कर सकती है।”

सच: नहीं, यह बयान सिर्फ मजिस्ट्रेट ही दर्ज कर सकता है, पुलिस नहीं।

नवीनतम महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय

विजया सिंह बनाम उत्तराखंड राज्य (2024)

सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि मजिस्ट्रेट के समक्ष धारा 183 के तहत दर्ज बयान को केवल गवाह के यह कहने पर खारिज नहीं किया जा सकता कि वह सही तरीके से दर्ज नहीं किया गया था। कोर्ट ने कहा कि मजिस्ट्रेट की संतुष्टि और गवाह के हस्ताक्षरित बयान की विश्वसनीयता पर विचार किया जाना चाहिए। इस निर्णय ने मजिस्ट्रेट के समक्ष दर्ज बयान की वैधता और महत्व को पुनः स्थापित किया है।

केडुखोयी बनाम नागालैंड राज्य (2024)

गुवाहाटी हाई कोर्ट ने कहा कि यदि आरोपी का बयान मजिस्ट्रेट द्वारा हस्ताक्षरित या प्रमाणित नहीं है, तो उसे धारा 183 के तहत प्रमाणिक नहीं माना जा सकता। इस निर्णय ने धारा 183 के तहत दर्ज बयान की प्रक्रिया और प्रमाणिकता पर महत्वपूर्ण दिशा-निर्देश प्रदान किए हैं।

रिपोर्टिंग और गोपनीयता संबंधी निर्देश

सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि बलात्कार पीड़िता के धारा 183 के तहत दिए गए बयान को आरोप पत्र दाखिल होने तक किसी भी व्यक्ति को नहीं दिखाया जा सकता। यह निर्णय पीड़िता की गोपनीयता और अधिकारों की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण है।

निष्कर्ष

धारा 183, क्रिमिनल केस की प्रक्रिया में एक बहुत ही ज़रूरी और असरदार प्रावधान है। चाहे आप पीड़ित, आरोपी, या गवाह हों, इस धारा  के बारे में जानना आपको अपने अधिकार समझने और सही फैसला लेने में मदद करता है।

यह कानून बेकसूर को बचाने का कवच है और सच्चाई के लिए एक हथियार भी, क्योंकि इसमें दिए गए बयान या इक़बाले-जुर्म सिर्फ तभी माने जाते हैं जब वो स्वेच्छा से, कानूनी तरीके से, और बिना किसी दबाव के दिए गए हों।

अगर आप कभी ऐसी स्थिति में आएं जहाँ धारा 183 लागू हो, तो हमेशा किसी वकील की सलाह लें और अपने अधिकारों को अच्छी तरह समझें।

किसी भी कानूनी सहायता के लिए लीड इंडिया से संपर्क करें। हमारे पास लीगल एक्सपर्ट की पूरी टीम है, जो आपकी हर संभव सहायता करेगी।

FAQs

1. क्या पीड़ित अपना बयान वापस ले सकता है?

हाँ, लेकिन उसे यह साबित करना होगा कि बयान दबाव या डर के कारण दिया गया था।

2. बयान दर्ज करने में कितना समय लगता है?

अगर मजिस्ट्रेट उपलब्ध हो तो यह प्रक्रिया 1-2 घंटों में पूरी हो सकती है।

3. क्या पुलिस मजिस्ट्रेट के समक्ष बयान दर्ज करवा सकती है?

नहीं, पुलिस केवल व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के सामने पेश करती है, बयान मजिस्ट्रेट ही दर्ज करता है।

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