भारत में चाइल्ड कस्टडी से जुड़े कानून क्या हैं?

What are the laws related to child custody in India

किसी भी परिवार में तलाक या विवाह विच्छेद की स्थिति बेहद नाजुक होती है, और जब इसमें बच्चों की कस्टडी का मुद्दा जुड़ता है, तो स्थिति और भी जटिल हो जाती है। बच्चों के साथ क्या सही होगा, इसका निर्णय किसी एक गार्डियन  पर नहीं छोड़ा जा सकता। इस अध्याय में यह बताया गया है कि रिश्ते टूटने पर बच्चों के भविष्य की चिंता किस तरह अदालत और माता-पिता के निर्णय पर निर्भर करती है। भारत में कस्टडी विवाद का मुख्य उद्देश्य हमेशा बच्चे की भलाई होता है, जो सबसे ऊपर रखा जाता है। इस फैसले में बच्चे की सुरक्षा, स्थिरता, और भावनात्मक कल्याण को प्राथमिकता दी जाती है।

चाइल्ड कस्टडी का मतलब क्या होता है?

चाइल्ड कस्टडी का मतलब है बच्चे की देखभाल और संरक्षण का अधिकार, जिसमें एक गार्डियन को बच्चे की दैनिक देखभाल का जिम्मा मिलता है। गार्डियनशिप दीर्घकालिक जिम्मेदारी होती है, जिसमें यह तय किया जाता है कि बच्चा किसके साथ रहेगा और उसके जीवन के महत्वपूर्ण फैसले कौन लेगा, जैसे शिक्षा और स्वास्थ्य के मामलों में।

चाइल्ड कस्टडी के प्रकार:

  • फुल कस्टडी: इस कस्टडी में एक ही गार्डियन  को बच्चे की पूरी देखभाल और जिम्मेदारी दी जाती है।
  • जॉइंट कस्टडी: इस कस्टडी में दोनों माता-पिता को मिलकर बच्चे की देखभाल करने का अवसर मिलता है।
  • विजिटेशन राइट्स: जब बच्चा किसी एक गार्डियन  के पास रहता है, तो दूसरे गार्डियन  को समय-समय पर बच्चे से मिलने का अधिकार दिया जाता है।
  • सोल कस्टडी: इस स्थिति में, कोर्ट किसी एक गार्डियन  को कस्टडी का अधिकार देता है, जबकि दूसरा गार्डियन  बच्चे से संपर्क करने के लिए सीमित समय का हकदार होता है।
  • स्प्लिट कस्टडी: जब अधिक बच्चे होते हैं, तो उन्हें अलग-अलग अभिभावकों के पास भेजा जाता है।

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भारत में चाइल्ड कस्टडी को कौन सा कानून नियंत्रित करता है?

भारत में चाइल्ड कस्टडी के लिए कई कानून हैं, जो अलग-अलग धर्मों और परिस्थितियों पर लागू होते हैं। इन कानूनों के तहत, किसी भी परिवार में कस्टडी विवाद का समाधान अदालत द्वारा बच्चों के हित में किया जाता है। निम्नलिखित कानूनों का पालन किया जाता है:

  • हिन्दू माइनॉरिटी एंड गार्डियनशिप एक्ट, 1956: यह कानून हिंदू बच्चों की कस्टडी तय करता है और यह साफ़ करता है कि बच्चों की कस्टडी के लिए मां को प्राथमिकता दी जाती है।
  • गार्डियन एंड वार्ड एक्ट, 1890: यह कानून सभी धर्मों के बच्चों पर लागू होता है और इसमें यह बताया गया है कि बच्चे की कस्टडी का फैसला कोर्ट द्वारा किया जाएगा।
  • मुस्लिम पर्सनल लॉ, 1937: मुस्लिम बच्चों की कस्टडी के मामले में यह कानून काम करता है।
  • इंडियन डाइवोर्स एक्ट, 1869: यह कानून क्रिश्चियन परिवारों के लिए कस्टडी के मामलों का समाधान करता है।
  • स्पेशल मैरिज एक्ट, 1954: इस कानून के तहत धर्मनिरपेक्ष विवाह में बच्चों की कस्टडी तय की जाती है।
  • जुवेनाइल जस्टिस एक्ट, 2015: बच्चों के संरक्षण के लिए यह एक्ट लागू होता है, जो बच्चों के कल्याण के मामलों में सहायक होता है।
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अदालत कस्टडी तय करते समय किन बातों पर ध्यान देती है?

कोर्ट का मुख्य उद्देश्य हमेशा बच्चे के सर्वोत्तम हित की रक्षा करना होता है। इस निर्णय में कई महत्वपूर्ण बिंदुओं पर ध्यान दिया जाता है:

  • मातापिता की आर्थिक स्थिति: कोर्ट यह देखती है कि दोनों माता-पिता की वित्तीय स्थिति क्या है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि बच्चा एक सुरक्षित और आरामदायक जीवन जी सके।
  • मातापिता का मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य: माता-पिता का मानसिक स्वास्थ्य भी एक बड़ा फैक्टर होता है। यह देखा जाता है कि बच्चा किसके साथ रहकर बेहतर मानसिक स्थिति में रहेगा।
  • बच्चे की पसंद: अगर बच्चा एक निश्चित उम्र (आमतौर पर 9-12 साल) का हो चुका है, तो उसकी इच्छा भी अदालत द्वारा सुनी जाती है।
  • मातापिता का व्यवहार: कोर्ट यह भी देखती है कि माता-पिता का व्यवहार कैसा है—क्या वे बच्चे के साथ उचित तरीके से पेश आते हैं और बच्चे की भलाई को ध्यान में रखते हुए फैसले लेते हैं या नहीं।
  • पर्यावरण और माहौल: बच्चा किस वातावरण में रहेगा, स्कूल, स्वास्थ्य सुविधाएं, आदि भी अदालत के निर्णय में अहम भूमिका निभाते हैं।

हिन्दू लॉ में बच्चे की कस्टडी कैसे तय होती है?

हिंदू क़ानून के तहत, विशेष रूप से हिंदू माइनॉरिटी एंड गार्डियनशिप एक्ट, 1956 के अनुसार, तलाक या विवाह विच्छेद के मामलों में बच्चे की कस्टडी निम्नलिखित तरीके से तय होती है:

  • यदि बच्चा 5 वर्ष से कम आयु का है, तो उसकी कस्टडी आमतौर पर मां को दी जाती है।
  • यदि बच्चा 9 वर्ष से अधिक आयु का है, तो उसकी इच्छा को भी कस्टडी के निर्णय में ध्यान में रखा जाता है।
  • पिता को बच्चे की संपत्ति पर गार्डियनशिप का अधिकार होता है, लेकिन बच्चे की व्यक्तिगत देखभाल में मां को प्राथमिकता दी जाती है।
  • कोर्ट हमेशा बच्चे के सर्वोत्तम हित को ध्यान में रखते हुए कस्टडी का निर्णय करता है।
  • यदि मां बच्चे की देखभाल में सक्षम नहीं है, तो पिता को कस्टडी दी जा सकती है।
  • बच्चे की दीर्घकालिक देखभाल और जीवन के महत्वपूर्ण निर्णयों के लिए गार्डियन तय किया जाता है।
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मुस्लिम लॉ में बच्चे की कस्टडी कैसे तय होती है?

मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत, बच्चे की कस्टडी और गॉर्डियनशिप के अधिकारों का निर्धारण इस प्रकार होता है:

  • बच्चे की प्रारंभिक देखभाल और पालन-पोषण की जिम्मेदारी माँ की होती है। सन्नी कानून के अनुसार, लड़के की कस्टडी 7 वर्ष की आयु तक और लड़की की कस्टडी प्यूबर्टी तक माँ के पास रहती है। शिया कानून में, लड़के की कस्टडी 2 वर्ष और लड़की की कस्टडी 7 वर्ष तक माँ के पास रहती है।
  • बच्चे की संपत्ति, शिक्षा और कानूनी मामलों में निर्णय लेने का अधिकार पिता के पास होता है, भले ही कस्टडी माँ के पास हो।
  • यदि माँ अनुपस्थित है या कस्टडी के लिए अयोग्य पाई जाती है, तो कस्टडी पिता को दी जाती है।
  • यदि व्यक्तिगत कानून में स्पष्ट प्रावधान नहीं हैं, तो भारतीय अदालतें इस एक्ट के तहत बच्चे की भलाई को प्राथमिकता देते हुए गॉर्डियन नियुक्त करती हैं।
  • 9 से 12 वर्ष की आयु के बाद, अदालतें बच्चे की इच्छा और भलाई को ध्यान में रखते हुए कस्टडी निर्णय ले सकती हैं।

कस्टडी विवाद में कोर्ट की प्रक्रिया क्या होती है?

कस्टडी पेटिशन  दाखिल करने की प्रक्रिया:

  • पीड़ित पक्ष अपने नजदीकी परिवार न्यायालय में कस्टडी पेटिशन दायर करता है।
  • पेटिशन  में बच्चे की वर्तमान स्थिति, माता-पिता के बीच विवाद और बच्चे की भलाई से संबंधित तर्क प्रस्तुत किए जाते हैं।

आवश्यक दस्तावेज़:

  • बच्चे की जन्म प्रमाणपत्र, माता-पिता के पहचान पत्र, निवास प्रमाणपत्र, और माता-पिता के बीच वैवाहिक स्थिति से संबंधित दस्तावेज़।
  • यदि कोई पूर्व न्यायिक आदेश हो, तो उसकी प्रति भी प्रस्तुत करनी होती है।

कोर्ट में सुनवाई की प्रक्रिया:

  • कोर्ट में दोनों पक्षों के वकील अपनी-अपनी दलीलें प्रस्तुत करते हैं।
  • बच्चे की भलाई को प्राथमिकता देते हुए, गवाहों के बयान और दस्तावेज़ों की समीक्षा की जाती है।

काउंसलिंग और मेडिएशन की भूमिका:

  • कोर्ट, सुलह और समझौते के लिए काउंसलिंग और मेडिएशन की प्रक्रिया अपनाता है।
  • यदि दोनों पक्ष सहमत होते हैं, तो समझौते के आधार पर आदेश पारित किया जाता है।

अस्थायी और अंतिम आदेश:

  • अस्थायी आदेश में बच्चे की अस्थायी कस्टडी, भरण-पोषण और अन्य आवश्यक निर्देश दिए जाते हैं।
  • अंतिम आदेश में बच्चे की स्थायी कस्टडी और संबंधित अधिकारों का निर्धारण किया जाता है।

क्या कस्टडी बाद में बदली जा सकती है?

  • यदि कस्टडी दिए गए गार्डियन की स्थिति में बदलाव होता है, जैसे दुर्व्यवहार, आर्थिक स्थिति, या अन्य कारण जैसे पुनर्विवाह, तो कस्टडी में बदलाव की पेटिशन  दायर की जा सकती है। कोर्ट यह सुनिश्चित करता है कि बच्चे का हित सर्वोपरि हो।
  • यदि किसी पार्टी को कोर्ट का आदेश अप्रसन्न लगता है, तो वे पुनर्विचार पेटिशन दायर कर सकते हैं। इस पेटिशन  में बदलाव के लिए नए साक्ष्य या परिस्थितियों का हवाला दिया जाता है। कोर्ट बच्चों के सर्वोत्तम हित में निर्णय लेता है।
  • 9-12 वर्ष के बच्चे की पसंद को अदालत महत्वपूर्ण मान सकती है, यदि बच्चे की मानसिक स्थिति और स्थिति स्पष्ट हो। हालांकि, अदालत हमेशा बच्चे की भलाई को प्राथमिकता देती है और निर्णय के समय उसकी उम्र और स्थिति पर ध्यान देती है।
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सुगिर्था बनाम गौतम (2024)

यह मामला एक दो वर्षीय बच्चे की कस्टडी से संबंधित था। हाई कोर्ट ने बच्चे को हर सप्ताह 300 किलोमीटर यात्रा कर पिता से मिलने का आदेश दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश को बच्चे की भलाई को ध्यान में रखते हुए संशोधित किया, ताकि बच्चे की सेहत और भलाई सुनिश्चित हो सके।

बॉम्बे हाई कोर्ट  – एडॉप्शन और कस्टडी  (2023)

बॉम्बे हाई कोर्ट ने एक मामले में, जहां दत्तक माता-पिता को बच्चे की कस्टडी देने का आदेश दिया गया था, उस आदेश को पलटते हुए, बच्चे की जैविक माता-पिता को कस्टडी देने का आदेश दिया। कोर्ट ने दत्तक प्रक्रिया की वैधता और बच्चे के सर्वोत्तम हित को ध्यान में रखते हुए यह निर्णय लिया।

निष्कर्ष

कस्टडी विवाद का मुख्य उद्देश्य बच्चे के भविष्य को सुरक्षित रखना होता है, न कि जीत-हार। इस मुद्दे का समाधान माता-पिता की संवेदनशीलता और समझदारी में है। अगर माता-पिता मिलकर बच्चे की भलाई को सर्वोच्च प्राथमिकता दें, तो यह कस्टडी विवाद का सबसे बड़ा समाधान बन सकता है। कानून इस प्रक्रिया में सहायता कर सकता है, बशर्ते कि बच्चे के हित को सबसे पहले ध्यान में रखा जाए।

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FAQs

1. क्या मां को हमेशा कस्टडी मिलती है?

नहीं, कोर्ट बच्चे के हित को देखकर फैसला करता है।

2. अगर पिता बेरोज़गार हो तो क्या उसे कस्टडी नहीं मिल सकती?

यह पूरी तरह परिस्थिति पर निर्भर करता है।

3. क्या बच्चे की मर्जी कोर्ट मानता है?

हाँ, खासकर अगर बच्चा 9–12 साल से बड़ा हो।

4. क्या दादी-दादा कस्टडी के लिए अपील कर सकते हैं?

विशेष परिस्थितियों में हाँ।

5. जॉइंट कस्टडी में खर्च कैसे बाँटा जाता है?

आमतौर पर दोनों माता-पिता साझा जिम्मेदारी उठाते हैं।

6. अगर कस्टडी मिलने के बाद उत्पीड़न हो तो क्या दोबारा कोर्ट जा सकते हैं?

बिल्कुल, कोर्ट को सूचित कर नया आदेश प्राप्त किया जा सकता है।

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