क्या मजिस्ट्रेट इन्वेस्टीगेशन आर्डर दे सकते हैं?

क्या मजिस्ट्रेट इन्वेस्टीगेशन आर्डर दे सकते हैं?

सुप्रीम कोर्ट के अनुसार, एक मजिस्ट्रेट किसी भी ऐसे इंसिडेंट में नए सिरे से इन्वेस्टीगेशन की एप्लीकेशन को पास नहीं कर सकता, जिस कम्प्लेन में एफिडेविट नहीं लगाया गया है।

बीआर गवई और कृष्ण मुरारी जेजे की सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने देखा कि यह ऍप्लिकेशंस हर रोज़ बिना किसी पर्सनल रिस्पांसिबिलिटी के सिर्फ रिस्पोंडेंट को परेशान करने के गलत इरादे से फाइल की जाती हैं। इसलिए, एप्लीकेशन के साथ एफिडेविट भी फाइल करना जरूरी कर दिया गया ताकि कम्प्लेनेंट इसके लिए सचेत और रिस्पोंसिबल रहे। 

कंडिशस :

  • पुलिस ऑफिसर्स और एसपी ने भी एफआईआर फाइल नहीं की 
  • एफआईआर फाइल की गई, लेकिन इन्वेस्टीगेशन ठीक से नहीं की गई

अगर कोई व्यक्ति इस फैक्ट से परेशान है कि एफआईआर फाइल नहीं की गई है या इन्वेस्टीगेशन सही तरीके से नहीं की गई है और इसमें कमियां हैं, तो पहला और सबसे जरूरी सोल्युशन सीआरपीसी के सेक्शन 156 (3) के तहत मजिस्ट्रेट से कांटेक्ट करना है। एफआईआर फाइल नहीं होने पर व्यक्ति सेक्शन 200 और 156 (3) के माध्यम से कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकता है। 

क्या आप को कानूनी सलाह की जरूरत है ?

सेक्शन 156 (3) सीआरपीसी का अब्यूज़ :

सीआरपीसी के सेक्शन 156 (3) के तहत इन्वेस्टीगेशन का आर्डर पास करने से पहले मजिस्ट्रेट को सतर्क रहना पड़ता है। फैक्ट्स को लॉजिकली और कानूनी रूप से देखा जाना चाहिए और कोई भी आर्डर पास करने से पहले लगाए गए एलीगेशंस को ध्यान में रखा जाना चाहिए। 

प्रियंका श्रीवास्तव और अन्य vs. यूपी राज्य और अन्य के केस में, यह सुप्रीम कोर्ट द्वारा आयोजित किया गया था कि हाई कोर्ट को सीआरपीसी के सेक्शन 156 (3) के तहत पॉवर का यूज़ करते समय ज़्यादा सतर्क और मेहनती रहना चाहिए।

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सीआरपीसी का सेक्शन 200 और 156 (3) :

  • एक बार सीआरपीसी का सेक्शन 200 के तहत कम्प्लेन फाइल होने के बाद, मजिस्ट्रेट कम्प्लेन को खारिज करने के लिए कम्प्लेनेंट की इन्वेस्टीगेशन की प्रोसेस शुरू करता है। एक बार मजिस्ट्रेट के सीआरपीसी के सेक्शन 200 को कॉग्नीज़न्स में लेने एक बाद सीआरपीसी का सेक्शन 156 (3) दोबारा ऐसा करने की अनुमति नहीं देता है।
  • इसके अलावा, मजिस्ट्रेट के पास सेक्शन 156 (3) के तहत पुलिस द्वारा इन्वेस्टीगेशन कराने के लिए इंस्ट्रक्शंस पास करने की पूरी पावर है। हालांकि, वह एक ‘प्राइवेट कम्प्लेन’ के रूप में सीआरपीसी के सेक्शन 200 के तहत फाइल की गई थी।
  • एक प्रसिद्ध केस “माधो vs महाराष्ट्र राज्य, 2013, 5 एससीसी 615” में निम्नलिखित बातें ऑब्ज़र्व की गयी थी –
  • मजिस्ट्रेट के पास कम्प्लेन की कॉग्नीज़न्स (किसी चीज़ की पूरी जानकारी, गहरी समझ) लेने की विवेकाधीन पावर है। केवल इसलिए कि यह एक प्राइवेट कम्प्लेन है, मजिस्ट्रेट के लिए तत्काल कॉग्नीज़न्स लेना जरूरी नहीं है।
  • अगर केस और इन्वेस्टीगेशन के लिए जरूरी है तो ऑलटर्नेटिव सोल्युशन लेने और सेक्शन 156 (3) के तहत आर्डर पास करने के लिए मजिस्ट्रेट सही है।
  • पार्टीज़ कॉग्निजिबल ओफ्फेंसिस के केस में सेक्शन 156 (3) और नॉन-कॉग्निजिबल ओफ्फेंसिस के केस में सेक्शन 200 के तहत कार्यवाही कर सकते है। 

अन्य सेक्शन्स  :

एक मजिस्ट्रेट सीआरपीसी के सेक्शन 156 (3) के तहत केवल तभी इन्वेस्टीगेशन का आर्डर दे सकता है, जब पुलिस द्वारा सीआरपीसी के सेक्शन 190, 200 और 204 के तहत काम ना हुआ हो या सही ढंग से ना हुआ हो। यह प्रोसेस पूरा हने एक बाद ही एक व्यक्ति, सीआरपीसी के सेक्शन 156(3) के तहत मजिस्ट्रेट को किसी भी इन्वेस्टीगेशन का आर्डर देने के लिए रिक्वेस्ट कर सकता है। 

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रामदेव फूड प्रोडक्ट्स V. गुजरात राज्य के केस में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सेक्शन 156 (3) के तहत कोई भी इन्वेस्टीगेशन आर्डर देने से पहले अपनी समझ का यूज़ किया जाना जरूरी है। 

इन पावर्स का यूज़ विशेष रूप से उन केसिस में किया जाता है जहां सीरियस एलीगेशंस होते हैं और सबूत कम्प्लेनेंट की पहुंच से बाहर होते हैं या ऐसा लगता है कि केस के लिए पूछताछ जरूरी है।

इसलिए, सीआरपीसी के सेक्शन 156 (3) में ऐसी सभी पावर्स शामिल हैं, जो एक प्रॉपर इन्वेस्टीगेशन के लिए जरूरी हैं, जिसमें मजिस्ट्रेट के साथ एफआईआर/ प्रॉपर इन्वेस्टीगेशन के आर्डर देने की पावर भी शामिल है। इसमें इन्सिडेंटल पावर्स भी शामिल हैं जो प्रॉपर इन्वेस्टीगेशन के लिए जरूरी हैं।

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