भारत का क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम एक तय प्रक्रिया के तहत काम करता है, जिसमें जांच और मुकदमा शामिल होता है। इसका मकसद है कि हर किसी को सही और न्यायपूर्ण तरीके से इंसाफ मिले।
जब भी किसी व्यक्ति को पुलिस गिरफ्तार करती है, तो परिवार और आरोपी के मन में कई सवाल उठते हैं – अब क्या होगा? पुलिस कितने दिन रोक सकती है? वकील से मिलने की इजाज़त होगी या नहीं?
ऐसे में भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) 2023 की धारा 187 एक बहुत जरूरी कानून है जो यह बताता है कि किसी व्यक्ति को पुलिस कितने समय तक हिरासत में रख सकती है। इसमें यह भी बताया गया है कि पुलिस और मजिस्ट्रेट की क्या भूमिका होती है और जब जांच पूरी होने में समय लगता है तो आगे क्या होता है।
धारा 187 BNSS क्या है?
धारा 187 BNSS का मूल उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि पुलिस बिना न्यायिक अनुमति के किसी आरोपी को अनावश्यक रूप से लंबे समय तक हिरासत में न रखे।जब पुलिस किसी को गिरफ्तार करती है और तय समय (24 घंटे) में जांच पूरी नहीं कर पाती, तो उसे आरोपी को मैजिस्ट्रेट के सामने पेश करना अनिवार्य होता है।
पुलिस को रिमांड लेने की प्रक्रिया:
पुलिस को यदि लगे कि जांच के लिए समय कम है, तो वो रिमांड एप्लिकेशन फाइल करती है। रिमांड दो तरह की हो सकती है –
- पुलिस हिरासत (Police Custody)
- न्यायिक हिरासत (Judicial Custody)
मैजिस्ट्रेट की भूमिका:
मजिस्ट्रेट का काम होता है यह देखना कि आरोपी के साथ न्याय हो और उसके अधिकारों की रक्षा हो। मजिस्ट्रेट क्या-क्या देखते हैं:
- सबसे पहले, यह जांचना कि गिरफ्तारी कानून के अनुसार हुई या नहीं।
- तय करना कि आरोपी को पुलिस कस्टडी में रखना है या ज्यूडिशियल कस्टडी भेजना है।
- यह देखना कि आरोपी को और समय तक हिरासत में रखने की जरूरत है या नहीं।
- यह सुनिश्चित करना कि आरोपी के कानूनी अधिकारों का उल्लंघन न हो।
- आरोपी को समय-समय पर कोर्ट में या वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए पेश किया जाए।
पुलिस कस्टडी क्या होती है?
पुलिस कस्टडी का मतलब है कि आरोपी पुलिस की निगरानी में होता है। यह आमतौर पर गिरफ्तारी के तुरंत बाद होता है। इस दौरान पुलिस आरोपी से पूछताछ कर सकती है और मामले की जांच आगे बढ़ाती है।
पुलिस कस्टडी से जुड़ी जरूरी बातें:
- पुलिस किसी भी आरोपी को बिना मजिस्ट्रेट की अनुमति के सिर्फ 24 घंटे तक ही कस्टडी में रख सकती है।
- अगर पुलिस को जांच के लिए ज्यादा समय चाहिए, तो उन्हें आरोपी को मजिस्ट्रेट के सामने पेश करना होता है।
- मजिस्ट्रेट अधिकतम 15 दिन तक की पुलिस कस्टडी दे सकता है, यह लगातार या छोटे भागों में विभाजित किया जा सकता है।
पुलिस कस्टडी क्यों दी जाती है?
यह कस्टडी मुख्य रूप से जांच के लिए होती है। पुलिस को जरूरत हो सकती है:
- आरोपी से पूछताछ करने की
- सबूत या गवाहों से आमना-सामना करवाने की
- चोरी का सामान या हथियार बरामद करने की
- क्राइम सीन को फिर से समझने की
पुलिस कस्टडी में आरोपी के अधिकार:
पुलिस कस्टडी में भी आरोपी के कुछ कानूनी अधिकार होते हैं:
- चुप रहने का अधिकार
- वकील से मिलने का अधिकार
- 24 घंटे में मजिस्ट्रेट के सामने पेश किए जाने का अधिकार
- शारीरिक उत्पीड़न या मानसिक प्रताड़ना से संरक्षण का अधिकार।
- मेडिकल जांच का अधिकार
ज्यूडिशियल कस्टडी क्या होती है?
ज्यूडिशियल कस्टडी का मतलब होता है कि आरोपी को जेल भेज दिया जाता है और अब वह कोर्ट (मजिस्ट्रेट) की निगरानी में होता है, न कि पुलिस की। इस हालत में, पुलिस आरोपी से पूछताछ नहीं कर सकती जब तक कोर्ट से खास अनुमति न ले।
ज्यूडिशियल कस्टडी से जुड़ी जरूरी बातें:
- जब मजिस्ट्रेट मानते हैं कि अब आरोपी को पुलिस कस्टडी में रखने की जरूरत नहीं है, तब ज्यूडिशियल कस्टडी शुरू होती है।
- आरोपी को न्यायिक हिरासत (जेल) में रखा जाता है, जब तक कि चार्जशीट दाखिल न हो जाए और ट्रायल प्रारंभ न हो जाए।
- अगर पुलिस को चार्जशीट दाखिल करने में समय लगता है, तो ज्यूडिशियल कस्टडी को बढ़ाया जा सकता है — गंभीर अपराधों में 90 दिन तक और साधारण अपराधों में 60 दिन तक
- अगर इस समय सीमा में चार्जशीट दाखिल नहीं होती, तो आरोपी को जमानत पाने का हक होता है।
ज्यूडिशियल कस्टडी क्यों दी जाती है?
- जब जांच चल रही हो लेकिन पुलिस को अब पूछताछ की जरूरत न हो।
- जब कोर्ट को लगता है कि आरोपी को जेल में रखना ही ठीक है।
- अगर आरोपी सबूतों से छेड़छाड़ कर सकता है, गवाहों को डरा सकता है या भाग सकता है।
पुलिस कस्टडी के 15 दिन पूरे होने के बाद क्या होता है?
पुलिस या ज्यूडिशियल कस्टडी के पहले 15 दिन पूरे होने के बाद:
- पुलिस कस्टडी 15 दिन से ज्यादा नहीं बढ़ाई जा सकती।
- अगर ज़रूरत हो तो मजिस्ट्रेट ज्यूडिशियल कस्टडी बढ़ा सकते हैं।
- कुल हिरासत की सीमा, गंभीर मामलों में 90 दिन और अन्य मामलों में 60 दिन होती है।
अगर पुलिस इस समय में चार्जशीट नहीं दाखिल करती:
- आरोपी को क़ानूनी तौर पर जमानत (बेल) लेने का अधिकार मिलता है। इसे डिफ़ॉल्ट बेल कहते हैं।
- फिर आरोपी डिफॉल्ट बेल के लिए आवेदन कर सकता है, और यदि सभी शर्तें पूरी होती हैं तो कोर्ट को यह बेल प्रदान करनी होती है।
राकेश कुमार पॉल बनाम असम (2017)
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर पुलिस समय पर चार्जशीट नहीं देती, तो आरोपी को डिफॉल्ट बेल का अधिकार स्वतः मिलता है। यह अधिकार व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हिस्सा है और उसे जेल में बिना मुकदमे लंबे समय तक नहीं रखा जा सकता। आरोपी को बेल के लिए आवेदन करना होता है।
गौतम नवलखा बनाम राष्ट्रीय जांच एजेंसी (2022)
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ज़रूरत पड़ने पर कोर्ट हाउस अरेस्ट (घर में नजरबंदी) का आदेश दे सकता है। भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता 2023 की धारा 187 के अनुसार, कोर्ट हाउस अरेस्ट का फैसला करते समय आरोपी की उम्र, सेहत, पुराने रिकॉर्ड, अपराध की प्रकृति, और निगरानी की व्यवस्था को ध्यान में रख सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि सजा के बाद के मामलों में हाउस अरेस्ट का उपयोग करने पर सरकार विचार कर सकती है।
कमलेश चौधरी बनाम राज्य सरकार राजस्थान (2020)
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सिर्फ चार्जशीट दाखिल हो जाने से किसी की ज़मानत रद्द नहीं की जा सकती। कोर्ट ने बशीर बनाम राज्य सरकार राजस्थान (1977) केस को मानते हुए कहा कि अगर ज़मानत रद्द करनी है, तो प्रॉसिक्यूशन को सही कानूनी आधार पर अलग से अर्जी लगानी होगी। सिर्फ चार्जशीट आने से ज़मानत अपने आप रद्द नहीं होती।
प्रेम प्रकाश बनाम प्रवर्तन निदेशालय (2024)
सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि गंभीर अपराधों जैसे मनी लॉन्ड्रिंग में भी यह सिद्धांत लागू होता है कि “जमानत सामान्य है, जेल अपवाद है।” कोर्ट ने प्रेम प्रकाश को जमानत दी और कहा कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता को अनुचित रूप से सीमित नहीं किया जा सकता। कोर्ट ने यह भी कहा कि प्रवर्तन निदेशालय द्वारा जमानत में देरी करने के लिए अतिरिक्त आरोपपत्र दाखिल करना गलत है और यह आरोपी के अधिकारों का उल्लंघन है।
निष्कर्ष
भारतीय आपराधिक कानून की धारा 187, BNSS पुलिस को जांच के लिए समय देता है और साथ ही किसी को बिना मुकदमे जेल में ज्यादा दिन रखने से रोकता है। पुलिस कस्टडी और ज्यूडिशियल कस्टडी का फर्क समझना जरूरी है। इससे आरोपी और उसके परिवार को सही वक्त पर बेल लेने और अपने अधिकार समझने में मदद मिलती है, ताकि न्याय सही तरीके से हो सके।
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FAQs
1. पुलिस हिरासत कितने दिन तक हो सकती है?
अधिकतम 15 दिन, मैजिस्ट्रेट की अनुमति से।
2. न्यायिक हिरासत के दौरान क्या जमानत मिल सकती है?
हाँ, केस की प्रकृति और परिस्थितियों पर निर्भर करता है।
3. क्या पुलिस हिरासत में वकील से मिलने की अनुमति होती है?
बिल्कुल, आरोपी को अपने वकील से मिलने का पूरा अधिकार है।
4. पुलिस हिरासत के दौरान मेडिकल जांच कैसे कराई जाती है?
हर 48 घंटे में मेडिकल चेकअप अनिवार्य है, कोर्ट द्वारा आदेशित।
5. डिफॉल्ट बेल क्या होती है और कैसे मिलती है?
60/90 दिन में चार्जशीट न होने पर बेल का अधिकार। आवेदन जरूरी होता है।
6. पुलिस द्वारा गैरकानूनी हिरासत के खिलाफ क्या कानूनी उपाय हैं?
हाई कोर्ट में पेटिशन दायर की जा सकती है।