जब कोई अपना पुलिस या जेल की हिरासत में मर जाता है, तो वह बहुत दुखद होता है। ऐसे मामलों में परिवार को सिर्फ दुःख ही नहीं, बल्कि इंसाफ की चिंता भी होती है। भारत में ऐसे कई मामले सामने आते हैं जहाँ हिरासत में लोगों की मौत हो जाती है, और इनमें कई बार मारपीट या लापरवाही की बात होती है। ऐसे मामलों में कानून लोगों के अधिकारों की रक्षा करता है। संविधान, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) और नेशनल ह्यूमन राइट्स कमीशन (NHRC) की गाइडलाइन लोगों को न्याय दिलाने और पुलिस की जवाबदेही तय करने में मदद करती हैं।
NHRC के अनुसार, हर साल सैकड़ों हिरासत में मौतें रिपोर्ट की जाती हैं, जिनमें से कई संदेहास्पद होती हैं। यह न केवल कानून व्यवस्था पर सवाल खड़े करता है, बल्कि पीड़ित परिवारों के लिए न्याय की लड़ाई को कठिन बना देता है। कई बार पीड़ित परिवार को अपने अधिकारों की जानकारी नहीं होती, जिससे दोषी अधिकारी बच निकलते हैं। इसलिए यह जानना आवश्यक है कि ऐसे मामलों में परिवार को कौन-कौन से कानूनी अधिकार मिलते हैं और उन्हें कैसे इस्तेमाल किया जाए।
हिरासत में मृत्यु (Custodial Death) का मतलब क्या है?
जब कोई व्यक्ति पुलिस या न्यायिक हिरासत (जेल) में रहते हुए मर जाता है, तो उसे हिरासत में मृत्यु कहा जाता है। ये मौतें कई कारणों से हो सकती हैं, लेकिन हर स्थिति में यह एक गंभीर मानवाधिकार उल्लंघन मानी जाती हैं और इन पर कानून के अनुसार कार्रवाई होनी चाहिए। हिरासत में मौत के कारण:
- शारीरिक मारपीट या यातना: पूछताछ के दौरान पुलिस द्वारा हिंसा।
- स्वास्थ्य सुविधा की कमी: बीमार होने पर इलाज न मिलना।
- मानवाधिकारों की अनदेखी: व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन।
- मानसिक दबाव या प्रताड़ना: जिससे आत्महत्या की स्थिति बन सकती है।
- लापरवाही: समय पर मदद या निगरानी न होना।
भारत में हिरासत में मृत्यु को कौन सा कानून नियंत्रित करता है?
संविधान के अधिकार
भारत का संविधान हर नागरिक को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 21) देता है। इसका मतलब है कि किसी भी व्यक्ति की जान या आज़ादी सिर्फ कानून के तहत ही छीनी जा सकती है। अगर कोई व्यक्ति हिरासत में मरता है और वो कानून के मुताबिक नहीं हुआ, तो यह पूरी तरह से अवैध और चुनौती योग्य है।
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS), 2023
कानून में हिरासत में मौत के लिए खास नियम बनाए गए हैं:
- धारा 196(2): हर हिरासत में मौत की न्यायिक जांच जरूरी है।
- धारा 196(6): जांच पूरी करके 2 महीने के अंदर संबंधित अधिकारियों को रिपोर्ट जमा करनी होती है। जांच कर रहे मजिस्ट्रेट को मृत व्यक्ति के शव को मौत के 24 घंटे के अंदर नजदीकी सरकारी डॉक्टर (सिविल सर्जन) के पास जांच के लिए भेजना जरूरी होता है।
- धारा 35: किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने के लिए पुख्ता कारण और सही प्रक्रिया जरूरी है।
इन नियमों से यह तय होता है कि मामले में पारदर्शिता और जवाबदेही बनी रहे।
भारतीय न्याय संहिता (BNS), 2023
अगर पुलिस या कोई अधिकारी गलत तरीके से किसी के साथ सख्ती करता है या उसे नुकसान पहुंचाता है, तो भारतीय न्याय संहिता (BNS) में उसके लिए सज़ा के प्रावधान हैं:
- धारा 120(1): जबरदस्ती बयां देने के लिए चोट पहुँचाना, ऐसा करने पर सात साल तक की सजा और जुर्माना लगाया जा सकता है।
- धारा 120(2): जबरदस्ती बयां देने के लिए गंभीर चोट पहुँचाना, ऐसा करने पर दस साल तक की सजा और जुर्माना लगाया जा सकता है।
- धारा 127: गलत तरीके से किसी को बंद करना, ऐसा करने पर एक साल तक की सजा और पांच हज़ार रुपया तक का जुर्माना लगाया जा सकता है।
- धारा 103: अगर पुलिस हिरासत में किसी की मौत हो जाती है, तो उस पुलिस अधिकारी को डेथ पेनल्टी या आजीवन कारावास तक की सजा हो सकती है।
इन धाराओं के तहत ऐसे पुलिस वालों पर सीधा केस दर्ज हो सकता है।
डी.के. बसु गाइडलाइंस (सुप्रीम कोर्ट के नियम)
सुप्रीम कोर्ट ने 1996 में कुछ जरूरी नियम बनाए, ताकि हिरासत में किसी को सताया न जाए:
- गिरफ्तारी के बाद डॉक्टर से मेडिकल जांच करवाना ज़रूरी।
- गिरफ्तारी का एक मेमो (लिखित पर्चा) बनाना और गवाह से साइन करवाना।
- गिरफ्तार व्यक्ति के परिजन या दोस्त को सूचना देना जरूरी।
- गिरफ्तारी का रजिस्टर में पूरा रिकॉर्ड रखना।
इन नियमों का पालन न करने पर पुलिस पर कानूनी कार्रवाई हो सकती है।
हिरासत में मृत्यु के बाद परिवार क्या कदम उठा सकता है?
यहाँ हिरासत में मौत होने पर परिवार को क्या-क्या कानूनी कदम उठाने चाहिए, उसे बहुत सरल हिंदी में समझाया गया है:
- FIR दर्ज करवाना: अगर किसी की मौत हिरासत में हुई है, तो सबसे पहला कदम है कि पुलिस में FIR दर्ज करवाई जाए। यह CrPC की धारा 154 के तहत जरूरी है। अगर पुलिस FIR नहीं लिखती, तो आप कोर्ट में इसकी शिकायत कर सकते हैं।
- न्यायिक जांच: BNSS की धारा 196(2) के अनुसार, मजिस्ट्रेट को इस मौत की जांच करनी होती है। परिवार को इस जांच की जानकारी दी जाती है और वे जांच में मौजूद रहने की मांग भी कर सकते हैं।
- मुआवजा: अगर मौत पुलिस की लापरवाही या मारपीट से हुई है, तो परिवार को मुआवजा मिलने का हक होता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि हिरासत में मौत मानवाधिकार का उल्लंघन है और पीड़ित परिवार को सहायता मिलनी चाहिए।
- ऊँची अदालत में अपील: अगर परिवार को लगता है कि पुलिस या अधिकारी ठीक से जांच नहीं कर रहे, तो वे हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में PIL (जनहित याचिका) दायर कर सकते हैं। ये अदालतें जरूरी कदम उठाकर न्याय दिला सकती हैं।
हिरासत में मौत के बाद परिवारों को आने वाली परेशानियाँ
जब किसी की मौत पुलिस या जेल हिरासत में हो जाती है, तो उसके परिवार को कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता है:
- जांच में देरी: जांच अक्सर देर से शुरू होती है, जिससे परिवार को समय पर न्याय नहीं मिल पाता।
- जानकारी नहीं मिलती: परिवार को जांच से जुड़ी जानकारी आसानी से नहीं दी जाती, जिससे उन्हें सच्चाई जानने में दिक्कत होती है।
- डराना-धमकाना: कई बार परिवार या गवाहों को डराया जाता है ताकि वे शिकायत न करें या केस आगे न बढ़ाएं।
- कानूनी प्रक्रिया समझना मुश्किल: कानूनी बातें और कोर्ट की प्रक्रिया आम लोगों के लिए कठिन होती है, और उन्हें वकील की मदद की ज़रूरत पड़ती है।
परिवार को किस प्रकार का मुआवजा मिल सकता है?
- राज्य सरकार द्वारा मुआवजा (Ex-Gratia): ज्यादातर राज्य सरकारें ऐसे मामलों में ₹2 लाख से ₹10 लाख तक का मुआवजा देती हैं। यह राशि केस की गंभीरता और हालात पर निर्भर करती है।
- कोर्ट द्वारा दिया गया मुआवजा: अगर सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट को लगता है कि हिरासत में मौत से संविधान का अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) का उल्लंघन हुआ है, तो वे सरकार को पीड़ित परिवार को मुआवजा देने का आदेश देते हैं।
- नीलाबती बेहरा बनाम उड़ीसा सरकार के केस में, एक व्यक्ति की पुलिस हिरासत में मौत हो गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने इसे गंभीर मामला मानते हुए उसकी माँ को ₹1.5 लाख का मुआवजा देने का आदेश दिया। कोर्ट ने कहा कि हिरासत में मौत मानवाधिकारों का उल्लंघन है और पीड़ित परिवार को इंसाफ मिलना चाहिए।
- नुकसान की भरपाई के लिए केस: परिवार अदालत में एक सिविल केस भी दाखिल कर सकता है, जिसमें मानसिक दुख, दर्द और जीवन के नुकसान के लिए मुआवज़ा मांगा जाता है। यह प्रक्रिया थोड़ी लंबी होती है, लेकिन इसमें ज्यादा मुआवज़ा मिलने की संभावना होती है।
नेशनल ह्यूमन राइट्स कमीशन (NHRC) की भूमिका
- अगर किसी की मौत पुलिस हिरासत में होती है, तो पुलिस को 24 घंटे के अंदर NHRC को इसकी जानकारी देनी होती है। अगर पुलिस ऐसा नहीं करती, तो उनके खिलाफ कार्रवाई हो सकती है।
- NHRC खुद भी मामले की जांच शुरू कर सकता है। वो पुलिस अधिकारियों को बुला सकता है और ज़रूरी कागज़ात मंगा सकता है।
- जांच पूरी होने के बाद NHRC यह सिफारिश कर सकता है कि पुलिस अधिकारियों पर कानूनी कार्रवाई की जाए, पीड़ित परिवार को मुआवज़ा दिया जाए और जिन अधिकारियों की लापरवाही से यह घटना हुई है, उन पर अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाए।
संजीव कुमार राजेंद्रभाई भट्ट बनाम गुजरात राज्य, 1990
जनवरी 2024 में गुजरात हाई कोर्ट ने पूर्व आईपीएस अधिकारी संजीव भट्ट को 1990 में हुई हिरासत में मौत के मामले में दी गई उम्रकैद की सज़ा को सही ठहराया। कोर्ट ने माना कि संजीव भट्ट और एक अन्य अधिकारी ने प्रभुदास वैष्णानी की हिरासत में पिटाई से मौत की थी।
अप्रैल 2025 में सुप्रीम कोर्ट ने भी संजीव भट्ट की सज़ा पर रोक लगाने से मना कर दिया और उनकी अपील खारिज कर दी। कोर्ट ने कहा कि हिरासत में मौत एक गंभीर अपराध है और इसमें जिम्मेदार लोगों को सज़ा मिलना जरूरी है।
साथनकुलम कस्टोडियल डेथ केस (तमिलनाडु, 2020)
2020 में तमिलनाडु के साथनकुलम में पिता-पुत्र, पी. जयराज और उनके बेटे जे. बेन्निक्स की पुलिस हिरासत में मौत ने पूरे देश में आक्रोश पैदा किया। यह घटना लॉकडाउन के दौरान हुई जब दोनों को कथित रूप से दुकान देर तक खोलने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था।
मद्रास हाई कोर्ट के आदेश पर, केंद्रीय जांच ब्यूरो (CBI) ने मामले की जांच शुरू की और नौ पुलिसकर्मियों को आरोपित किया। पुलिसकर्मियों पर हत्या, गलत तरीके से बंदी बनाना और साक्ष्य नष्ट करने के आरोप लगाए गए। विशेषज्ञों की रिपोर्ट में पुष्टि हुई कि दोनों की मौत शारीरिक यातना के कारण हुई।
मद्रास हाई कोर्ट ने आरोपित पुलिसकर्मियों की जमानत याचिकाएं खारिज कीं और उन्हें न्यायिक हिरासत में भेज दिया। सीबीआई ने आरोपपत्र में कुल 104 गवाहों के बयान दर्ज किए हैं। मामला मदुरै की अतिरिक्त जिला और सत्र न्यायालय में विचाराधीन है। अभी तक किसी भी आरोपी को दोषी ठहराए जाने की प्रक्रिया पूरी नहीं हुई है।
निष्कर्ष: न्याय आपका अधिकार है, कोई एहसान नहीं
हिरासत में मौत सिर्फ एक दुःखद घटना नहीं, बल्कि न्याय प्रणाली की नाकामी होती है। ऐसे मामलों में पीड़ित परिवार को सच्चाई, इंसाफ और संतोष पाने का पूरा हक है।
भारतीय कानून में कुछ कमियाँ हो सकती हैं, लेकिन ये न्याय के लिए लड़ने के रास्ते भी देता है। अगर परिवार को सही कानूनी मदद, जन समर्थन और जागरूकता मिले, तो वे अपनी आवाज़ बुलंद कर सकते हैं और ये सुनिश्चित कर सकते हैं कि ऐसी घटनाएँ दोबारा न हों। न्याय हर किसी का हक है, और इसके लिए लड़ना ज़रूरी है।
किसी भी कानूनी सहायता के लिए लीड इंडिया से संपर्क करें। हमारे पास लीगल एक्सपर्ट की पूरी टीम है, जो आपकी हर संभव सहायता करेगी।
FAQs
1. क्या परिवार सीधे सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर सकता है?
हाँ, अनुच्छेद 32 के तहत मौलिक अधिकार के उल्लंघन पर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की जा सकती है।
2. FIR न दर्ज हो तो क्या करें?
परिवार मजिस्ट्रेट के पास 175(3) BNSS के तहत शिकायत कर सकता है।
3. मुआवजा कितने समय में मिलता है?
यदि कोर्ट या NHRC से आदेश आता है, तो आमतौर पर 3–6 महीने में भुगतान होना चाहिए।